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________________ २६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र वध्य प्राणी के मन में वधकर्ता के प्रति वैमनस्य (वैरभाव ) पैदा करने वाला होने से अथवा मृत्यु और परस्पर वैमनस्य का कारण होने से प्राणवध को 'मरणवैमनस्य' कहा है । पूर्वापर सम्बन्ध - इस सूत्रपाठ से पहले की गाथा में प्राणवध का निरूपण करने के लिए स्वरूप आदि ५ द्वारों का क्रम बताया गया है । उनमें से प्रथम द्वार के रूप में इस सूत्र में प्राणवध के स्वरूप का वर्णन किया गया है। प्राणवध के स्वरूप at बताने के लिए यहाँ प्रायः कार्य-कारण भाव को लेकर २२ पद दिये गये हैं । इनका पूर्वापर सम्बन्ध इस प्रकार है- प्राणवध (हिंसा) पापरूप है, इसलिए क्रोधादि कषायों में उग्रता पैदा होती है, इसके कारण रौद्रता और क्षुद्रता पैदा होती है, और सहसा किसी प्राणी पर वह टूट पड़ता है । ऐसा निन्द्य कर्म अनार्य ही करता है । अनार्य वे हैं, जो हिंसा से ही अपनी जीविका चलाते हैं, जीवों को मार कर उनका मांस आदि बेचते हैं, और ऐसे घृणित पदार्थों का स्वयं सेवन भी करते हैं । आर्य वे हैं, जो हिंसा आदि निन्दनीय और त्याज्य प्रवृत्तियों से दूर हीं रहते हैं, अपने सामने हिंसा होने नहीं देते, हिंसा होते देखकर जिनकी आत्मा कांप उठती है और जो दया से द्रवित हो उठते हैं । ऐसे व्यक्ति यहां और आगे भी सुखी होते हैं । इसके विपरीत जहाँ अनार्यता होती है, वहाँ पाप और परलोक का कोई खटका नहीं होता, और इन्सानियत को ठुकरा कर दिनरात बेखटके अमानुषिक हत्या आदि कुकृत्य किए जाते हैं । यही कारण है, कि प्राणिवध प्राणियों में महाभय पैदा कर देता है, यही नहीं ; मारने वाले में भी मरने वाले या उसके सम्बन्धियों द्वारा बदला लेने और खुद को मार देने का प्रतिभय भी पैदा करता है । साथ ही मौत का अत्यन्त दारुण भय भी इससे पैदा होता है । मौत भय का कारण यह है, कि जीवों को मारने से पहले बुरी तरह से सताया, मारा-पीटा या बेचैन किया जाता है, जो अत्यन्त त्रासजनक है ; या उन पर अन्याय किया जाता है, जो मारने-पीटने से भी बढ़कर दुःख है । प्राणियों पर अन्याय करते समय व्यक्ति यह नहीं सोचता, कि मैं आज सबल होकर दुर्बलों, जरूरत मंदों, लाचारों या मंद बुद्धिजनों पर उनकी विवशता का लाभ उठाकर अन्याय कर रहा हूँ, कल दूसरी शक्ति मुझ पर भी हावी होकर यदि इसी सिक्के में भुगतान करेगी यानी मुझसे बदला लेगी, मुझ पर अन्याय व जुल्म करेगी, उस समय मेरी क्या दशा होगी ? परन्तु अन्यायी व्यक्ति उस समय इस बात से आंखें मूंद लेता है, उसके कान इन खरी बातों को सुनने से इन्कार कर देते हैं । वह यह नहीं सोचता कि मेरे ये हिंसाकृत्य प्राणियों के चित्त में उद्वेग पैदा कर देते हैं, मृत्यु के दृश्य से या मृत्यु का नाम सुनने मात्र से उनका हृदय सिहर उठता है । परन्तु अन्यायपरायण व्यक्ति को दूसरों के प्राणों की या भविष्य में दुर्गति में जाने की
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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