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________________ सातवां अध्ययन : सत्य-संवर ६४६ साधक को सत्य से पतित कर देता है और मायाचार से दूषित कर देता है । दूसरा शत्रु है - पिशुन । पिशुन का अर्थ है - चुगलखोरी । चुगली खाने की आदत जिस साधक में हो जाती है, वह इधर की बात उधर भिड़ाता रहता है । वह लोगों के परस्पर सिर फुड़वा देता है । चुगलखोरी भी साधक को सत्यमहाव्रत से नीचे गिरा देती है । चुगलखोरी अविश्वास, अनादर, और अध: पतन का कारण है । इसलिए इस शत्रु से भी बचना जरूरी है । तीसरा शत्रु कठोरवचन है । कठोर वचन बोलने वाले का अन्त:करण भी कठोर हो जाता है । कठोरभाषी स्वपर के भावप्राणों की हिंसा कर बैठता है । वह अकारण ही लोगों में अप्रिय, अनादरणीय और शत्रु बन जाता है । कठोर वचन बोलने वाले के यहां आपत्ति के समय कोई भी पास नहीं फटकता । कठोर भाषण मर्मघातक होने से कई बार इसे सुनने वाले आत्महत्या तक कर बैठते हैं । अतएव सत्य के इस शत्रु से भी बचना आवश्यक है । इसके बाद चौथा शत्रु है— कटुवचन । हितकर वचन भी यदि कड़वे हों तो वे सुनने वाले के दिल में तीखे कांट की तरह चुभ जाते हैं । तलवार का घाव फिर भी भर जाता है, लेकिन कटुवचनों का घाव जिंदगी भर नहीं भरता । कटुवचन मनुष्य को अकारण शत्रु बना देता है । कटुवचन यथार्थ हो तो भी परपीड़ाजनक होने से वह असत्य की कोटि में ही आता है । साधक कई बार इस भुलावे में रहता है कि कटुवचन कहने से मेरा प्रभाव श्रोता पर जल्दी और अचूक होगा । लेकिन होता इससे उलटा है। कटुवाक्य क्षणिक प्रभाव चाहे डाल दे, मगर वह स्थायी और शुभपरिणामी नहीं होता । सत्य महाव्रत का इससे नाश हो जाता है । इसलिए सत्यार्थी साधक को इस शत्रु से भी बचते रहना चाहिए। पांचवां शत्रु है - चपल वचन | मन की व्याकुलता या व्यग्रता के कारण सत्यार्थी साधक भी उतावल में आकर कुछ का कुछ बोल जाता है । उसे उतावली में अपने कहे हुए वचनों का भान भी नहीं रहता है। चंचलवचन वाला साधक कुछ ही देर पहले एक बात की हाँ भर लेता है और कुछ ही मिनटों के बाद एकदम बदल जाता है; उसके वचनों का कोई मूल्य नहीं होता । कोई उसके वचनों पर विश्वास करके उसे किसी जिम्मेदारी का काम नहीं सौंप सकता । इसलिए चंचलवचन भी सत्य का सर्वथा विरोधी है । इससे भी बचना चाहिए । सत्यसिद्धान्त का प्रयोजन और महत्त्व- - पूर्वोक्त सूत्रपंक्ति में भगवान् महावीर द्वारा भलीभांति निरूपित सत्यसिद्धान्तरूप प्रवचन का मुख्य प्रयोजन बताया गया है; इसके बाद आगे की पंक्तियों में बताए गए इसके प्रयोजन और स्वरूप पर क्रमशः विश्लेषण करते हैं - अत्तहियं- - सत्य सैद्धान्तिक दृष्टि से आत्मा का स्वभाव है । इसलिए स्वाभा
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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