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________________ ६४८ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र अनुज्ञात-- अनुमत इस प्रशान्तयोग -- भावनाओं के प्रयोग को जीवन के अन्त तक नित्य आचरण में लाना चाहिए । इस प्रकार यह द्वितीय सत्यमहाव्रतरूप उचित समय पर स्वीकृत, सामान्यरूप से पालित, अतिचाररहित शुद्धरूप में आचरित; जीवन के अन्त तक पार लगाया हुआ,महापुरुषों द्वारा कथित और लगातार अनुपालित वीतराग की आज्ञा से आराधित होता है । इस प्रकार सिद्धों के प्रधान शासनरूप इस द्वितीय संवरद्वार का ज्ञातवंश में उत्पन्न हुए भगवान् महावीर स्वामी ने सामान्यरूप से निरूपण किया है, विशेषरूप से भेद - प्रभेदसहित विश्लेषण किया है, प्रमाणों और नयों से इसे सिद्ध किया है, प्रतिष्ठित किया है, भव्यजीवों को इसका उपदेश दिया है; यह प्रशस्त -- मंगलमय है । ऐसा मैं ( सुधर्मास्वामी ) कहता हूँ । व्याख्या प्रस्तुत सूत्रपाठ में शास्त्रकार ने अहिंसा-संवर की तरह सत्य -संवर की भी सर्वतोमुखी सुरक्षा के लिए चिन्तनात्मक तथा प्रयोगात्मक पांच भावनाएँ बताई हैं । यह निर्विवाद है कि ये भावनाएँ साधक की आत्मा में इतने मजबूत संस्कार जमा सकती हैं, जिन्हें फिर कोई हिला नहीं सकता । सत्य महाव्रती साधक यदि इन्हें अपने साधनाकाल के प्रारम्भ से ही 'अपना लेता है तो उसके जीवन के अन्तिम क्षणों तक वे संस्कार अमिट हो जाते हैं । इन पांच शत्रुओं से बचने का निर्देश – लोकव्यवहार में हम यह अनुभव करते हैं कि जो जिस संस्था की स्थापना करता है, या व्रत आदि नई चीज का आविष्कार करता है, वह पद-पद पर उसकी सुरक्षा का स्वयं ध्यान रखता है, अपने अनुगामियों को भी सुरक्षा का ध्यान दिलाता है । भ० महावीर ने भी इसी दृष्टि से सत्य की सैद्धान्तिक पहलू से विवेचना की और यह स्पष्ट निर्देश भी किया कि साधक को किनकिन विनाशक और विस्फोटक क्रिया कलापों से बचाना चाहिए ? पाठ के प्रारम्भ में शास्त्रकार ने इसी बात को स्पष्ट किया है— 'इमं च अलियपिसुणफरुस वयणपरिरक्खणट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं ।' शास्त्रकार का इस कथन के पीछे आशय यह है कि भगवान् महावीर ने सत्यसिद्धान्तरूप प्रवचन का भलीभांति निरूपण किया है; वह इसलिए कि सत्यार्थी साधक अपने सत्य महाव्रत की अलीकवचन आदि शत्रुओं से रक्षा कर सके । वे शत्रु इस प्रकार हैं-सत्यं महाव्रत का प्रथम शत्रु - अलीकवचन है, जो अविद्यमान असद्भूत बात का प्रतिपादन करता है; वह हर चीज को बढ़ाचढ़ा कर कहने का आदी होता है । ऐसा मिथ्यावचन सत्यार्थी
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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