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________________ ६५० श्री प्रश्नव्याकरणसूत्र विकतया वह आत्मा का हितकर्ता है। सत्य से आत्मा में मायाचार आदि नहीं पनप पाते । विकारों के अभाव में आत्मा में शान्ति और परमानन्द की लहरें उठा करती हैं और आत्मा उनमें मग्न हो कर अद्वितीय आनन्दरूप शुद्धस्वरूप का अनुभव करता है। इसलिए यह आत्मा के लिए हितकर है। पेच्चाभावियं-सत्य परभव में आत्मा का सहायक होता है । चूकि सत्यप्रतिज्ञ साधक माया, कपट से रहित होता है । माया के अभाव के कारण वह नरकगति और तिर्यचगति तथा नरकायु और तिर्यंचायु का बन्ध नहीं करता । यदि सत्यवादी सम्यक्त्व प्राप्त होने के पहले मिथ्यात्वअवस्था में ही गति और आयु का बन्ध करता है तो मनुष्यगति और मनुष्यायु का बन्ध करता है और अगर सम्यक्त्व-अवस्था में उसने बन्ध किया तो वह देवगति और देवायु का बन्ध करता है। शास्त्रीय दृष्टि से यह बात निश्चित है । इसलिए यह सिद्ध हुआ कि सत्य आगामी जन्मों में भी सद्गति दिलाने में सहायक होता है। - आगमेसिभई-सत्य भविष्य में कल्याण का कारण होता है। इसका आशय यह है कि यदि सत्यवादी मनुष्य-जन्मग्रहण करता है तो वहाँ भी उसे उत्तमधर्म और उत्कृष्टगुरु का संयोग मिलता है और वह उचित समय में ही सद्गुरु की कृपा से संयम का आराधन करके आत्मकल्याण कर लेता है। यदि उस सत्यार्थी मानव ने दर्शनविशुद्धि आदि तीर्थकरत्व के कारणरूप भावनाओं की सम्यक् आराधना कर ली तो वह तीर्थंकर नामगोत्र का बन्ध कर लेता है और तीसरे भव में तीर्थंकर होता है । और उसके जन्म, गर्भ, तप, ज्ञान और मोक्ष ये पांच कल्याण होते हैं। यदि महाविदेह क्षेत्र से कोई मनुष्य इन भावनाओं का आराधन करता है तो वह उसी भव में तप, ज्ञान और मोक्ष; इन तीन कल्याणों को प्राप्त कर सकता है। इसीलिए यह ठीक ही कहा है कि सत्य आत्मा का भविष्य में कल्याण करने वाला है। सुद्ध-सत्य निर्दोष है, विकाररहित है । सत्य आत्मा का निजी स्वभाव है। यह कर्म के निमित्त से प्राप्त नहीं होता ; बल्कि कर्मों या कर्मजनक कषायों के क्षय, उपशम या क्षयोपशम के होने से प्रकट होता है । आत्मा का शुद्धस्वरूप होने से यह शुद्ध है। सत्यवादी का अन्तःकरण भी पवित्र होता है। उसके अन्तःकरण से निकले हुए विकल्प-प्रवाह भी पवित्र होते हैं। इसलिए सत्य पवित्रता का कारण होने से पवित्र है। नेयाउयं - सत्य न्याय की प्रवृत्ति करने वाला और अन्याय का विरोधी है । सत्यवादी प्राणों की आहुति दे कर भी न्याय की रक्षा करता है। बल्कि सामाजिक सत्य न्याय के रूप में ही व्यक्त होता है ; सम्पूर्ण न्याय सत्य पर ही अवलम्बित है ।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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