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________________ ६४४ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र 1 सम्यक् प्रकार से (संवरियं) संवृत - सुरक्षित अथवा ( संचरियं) भलीभांति आचरित ( सुप्पणिहियं) अच्छी तरह दिलदिमाग में स्थापित (होइ ) हो जाता है । (धितिमया ) धैर्य धारण करने वाले ( मतिमया) बुद्धिमान् साधक को (अणासवो) कमों को आने से रोकने वाला संवररूप, (अकलुसो) दोषरहित, (अच्छिद्दो) कर्मजल के प्रवाह के प्रवेश को रोकने में निश्छिद्र, (अपरिस्सावी) कर्मबन्ध के प्रवाह से रहित ( असं किलिट्ठी) संक्लिष्टपरिणामों से रहित, (सव्वजिणमण न्नाओ ) समस्त तीर्थंकरों के द्वारा आज्ञापित ( एस ) यह ( जोगो) - प्रशान्त योग अथवा चिन्तन के साथ प्रयोग, (निच्चं ) सदा (आमरणंत) मृत्युपर्यन्त ( यव्वो) अमल में लाना चाहिए । संवरद्वार ( फासियं ) ( एवं ) इस प्रकार ( बितियं) द्वितीय ( संवरदारं ) सत्यरूप उचित समय पर स्वीकार किया हुआ, (पालियं ) पालन किया गया, (सोहियं) अतिचाररहित आचरण किया गया अथवा जीवन के लिए शोभादायक (तोरियं) अन्त तक पार लगाया गया, (किट्टियं) दूसरे लोगों के सामने आदरपूर्वक कहा गया, ( अणु पालियं) लगातार पालन किया गया, ( आणाए आराहियं) भगवान की आज्ञापूर्वक आराधित- सेवित (भवति) है । ( एवं ) इस प्रकार ( नायमुणिणा ) ज्ञातवंश में उत्पन्न हुए मुनीश्वर ( भगवया) भगवान् महावीर स्वामी ने ( इणं) इस (सिद्धवरसांसणं) सिद्धों के श्रेष्ठ शासन का ( पन्नवियं) सामान्यरूप से कथन किया है, (परूवियं) विशेष रूप से विवेचन किया है, (पसिद्ध ) प्रमाणों और नयों से सिद्ध ( आघवियं ) सर्वत्र प्रतिष्ठित किया गया, (सुदेसियं) भव्यजीवों को अच्छी तरह से उपदिष्ट ( पसत्थं ) श्रेष्ठ – मंगलमय यह ( बितियं ) दूसरा ( संवरदारं ) संवरद्वार (समत्तं) समाप्त हुआ, ( ति बेमि) ऐसा मैं कहता हूँ । मूलार्थ - भगवान् महावीर ने इस प्रवचन - सत्य सिद्धान्त को मिथ्यावचन, चुगलखोरी, कठोर शब्द, कटुवाणी एवं बिना सोचे- विचारे उतावली में कहे हुए वचन से आत्मा की सुरक्षा के लिए अच्छी तरह कहा है; जो आत्मा के हित के लिए है, जन्मान्तर में शुभभावना से युक्त है, भविष्य के लिए कल्याणकारी है, निर्दोष है, न्यायसंगत है, मोक्ष है, सर्वोत्कृष्ट है, अतएव समस्त दुःखों और पापों को करने वाला है । उस द्वितीय महाव्रत - सत्यसंवर की आगे कही जाने वाली ये पांच भावनाएँ हैं; जो असत्यवचन से विरति की पूर्ण सुरक्षा के लिए हैं ; इनका चिन्तन और प्रयोग करना चाहिए । के लिए सीधा-सरल मार्ग विशेषरूप से उपशान्त पहली अनुचिन्त्य समिति रूप भावना है। सद्गुरु से मृषावाद विरमण
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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