SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 690
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सातवां अध्ययन : सत्य-संवर ६४५ सत्यवचनप्रवृत्तिरूप उस संवर के प्रयोजन को सुन कर तथा उसके परम अर्थ रहस्य को जान कर विकल्प की तरह संशययुक्त या हड़बड़ा कर न बोले, उतावली में जल्दी-जल्दी न बोले, कड़वा वचन न बोले, एक क्षण पहले कुछ कहना, क्षणभर बाद कुछ और ही कह देना, इस प्रकार सनक में आकर चचलता से न बोले,तथा दूसरों को पीड़ा पहँचाने वाले सावधवचन न कहे; किन्तु सत्य तथा हितकर एवं युक्तिसंगत-पूर्वापर-अबाधित और स्पष्ट तथा पहले से भलीभांति सोचा-विचारा हुआ वचन अवसर आने पर संयमी पुरुष को बोलना चाहिए । इस प्रकार पूर्वापर सोच कर बोलने की समिति-सम्यक् प्रवृत्ति के योग से संस्कारित अन्तरात्मा साधक हाथ, पैर, नेत्र और मुह पर संयम करने वाला होकर पराक्रमी तथा सत्य और सरलता से सम्पन्न-परिपूर्ण हो जाता है । दूसरी भावना क्रोधनिग्रह क्षान्तिरूप है, वह इस प्रकार है- क्रोध का सेवन न करे; क्योंकि क्रोधी मनुष्य रौद्रपरिणामों के वशीभूत हो कर मिथ्या बोलता है,चुगलखोरी के वचन बोलता है,कठोर वचन कहता है, एक साथ मिथ्यावचन,चुगली और कठोरता से युक्त वचन कह डालता है । वह बात बात में झगड़ा कर बैठता है,वैरविरोध पैदा कर लेता है,और अटसंट बकवास करने लगता है; एक साथ कलह,वैर और उटपटांग बकवास करता है । वह सत्य का गला घोंट देता है, शील-सदाचार का नाश कर देता है, विनय-नम्रता की भी हत्या कर बैठता है; वह सत्य, शील और विनय तीनों का एक साथ घात कर बैठता है । क्रोधी मनुष्य अप्रिय-द्वषभाजन बन जाता है, दोषों का घर बन जाता है, तिरस्कार का पात्र बन जाता है; वह एक साथ अप्रिय, दोषों का आधार और तिरस्कार का पात्र बन जाता है । वह इस मिथ्यावचन आदि को एवं इसी प्रकार के अन्य असत्य को क्रोधाग्नि से प्रज्वलित हो कर बोलता है। इसलिए क्रोध का सेवन नहीं करना चाहिए। इस तरह क्रोधनिग्रहरूप क्षमाभाव से सुसंस्कृत हुआ अन्तरात्मा अपने हाथ, पैर, नेत्र और मुख को नियंत्रित करने वाला, शूरवीर और सत्यता तथा सरलता के गुणों से परिपूर्ण हो जाता है। तीसरी भावना लोभसंयम-निर्लोभता से युक्त है। वह इस प्रकार है-लोभ का सेवन नहीं करना चाहिए। क्योंकि लोभी मनुष्य व्रत से चलायमान हो कर या तो खेत के लिए झठ बोलेगा या मकान के लिए। लोभी व्रत से डिग कर या तो कीर्ति के लिए असत्य बोलेगा या लोभवश परिवार आदि के पोषण के लिए । लुब्ध मनुष्य सत्यव्रत से विचलित हो कर या तो सम्पत्ति
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy