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________________ सातवां अध्ययन : सत्य-संवर ६४३ धैर्य-चित्त में स्थिरता से (भावितो) संस्कारदढ़ (अंतरप्पा) अन्तरात्मा (संजयकरचरण नयणवयणो) हाथ, पैर, आंख और मुंह पर संयम करने वाला सुसंयमी साधु (सूर) सत्यव्रत पालन में बहादुर तथा (सच्चज्जवसंपन्नो) सत्यता और निष्कपटता से युक्त (भवति) हो जाता है। (५) (पंचमक) पांचवीं हास्यसंयम वचनसंयमरूप भावना इस प्रकार है-(हासं न. सेवियव्वं) हास्य का सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि (हासइत्ता) हंसी या ठटठामश्करी करने वाले लोग (अलियाई दूसरे में विद्यमान सद्गुणों को छिपाने के रूप में झूठ तथा (असंतकाई) अविद्यमान या असत् वस्तु को प्रकट करने वाले वचन अथवा अशोभनीय या अशान्ति पैदा करने वाले वचन (जंपति) बोल देते हैं, (च) तथा (हासं) हंसी-मजाक (परंपरिभवकारणं) दूसरों के तिरस्कार का कारण बन जाती है, (च) और (हासं) हंसी को (परपरिवायप्पियं) दूसरों की निन्दा ही प्यारी लगती है । (च) तथा (हासं) मजाक (परिपीलाकारगं) दूसरों को तकलीफ पहुँचाने वाली होती है, (च, और (हासं) हंसी (भेदविमुत्तिकारक) चारित्रनाश या मोक्षमार्ग का उच्छेद तथा शरीर की आकृति विकृत कर देने वाली है, अथवा फूट डलवाने वाली तथा विमुक्ति-प्रियजनों से अलगाव पैदा कराने वाली है । (च) तथा (हासं) हंसीमजाक (अन्नोन्नजणियं होज्ज) परस्पर एक दूसरे से होता है। (च) और (मम्म) हंसी में बोला गया मर्मकारी वचन-- ताना (अन्नोन्नगमणं होज्ज) परस्पर एक दूसरे को चुभने वाला होता है। (च) और हंसी (अन्नोन्नगमणं होज्ज कम्म) पारस्परिक कुचेष्टा या गुप्त परदारादि के रहस्य को खोलने वाला कर्म हो जाता है, (च) तथा (हासं) हास्य (कंदप्पाभियोगगमणं) हंसाने वाले विदूषकों या भांडों तथा तमाशे दिखाने वालों के निर्देशकर्ताओं के निकट पहुंचने की बुद्धि पैदा करता है, अथवा हास्यकारी कांदर्पिक देवों तथा अभियोग्य जाति के देवों में गमन का कारण है, (च) तथा । हासं) हास्य (आसुरियं) असुरजाति के देवपर्याय को (च) और (किदिवसत्तणं) किल्वषदेवपर्याय को (जणेज्जा) प्राप्त कराता है । (तम्हा) इसलिए (हासं) हास्य का (न सेवियव्वं) सेवन नहीं करना चाहिए। (एवं) इस प्रकार के चिन्तन से (मोणेण) वचनसंयम-मौन द्वारा (भावित भावनायुक्त बना हुआ (अंतरप्पा) अन्तरात्मा साधक (संजयकरचरणनयणवयणो) अपने हाथ, पैर, नेत्र और मुख पर नियंत्रण करने वाला संयमी (सूरो, दृढ़ पराक्रमी तथा (सच्चज्जवसंपन्नो) सत्य और अमायिकभाव से संपन्न (भवति) हो जाता है। (एवं) इस प्रकार (इणं) यह (संवरस्स दारं) संवर का सत्यरूप द्वार - उपाय, (मणवयणकायपरिरक्खिएहि) मन, वचन और काया तीनों की सब प्रकार से रक्षा करने वाली (इमेहि पंचहि वि कारणेहिं) इन पांच कारणरूप भावनाओं से (सम्म)
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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