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________________ ६४२ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र लिए या पैर पोंछने के काम में आने वाले वस्त्रखण्ड के निमित्त से, (अलियं भणेज्ज) मिथ्या बोल देता है, (लुद्धो) लोभग्रस्त (लोलो) व्रत में अस्थिर हुआ साधक, (सोसस्सव) या तो शिष्य के लिए, (सिस्सणीए व कएण) अथवा शिष्या के निमित्त (अलियं) झूठ (भणेज्ज) बोल उठता है, (लुद्धो) लोभी (लोलो) सत्यव्रत से विचलित हो कर ये (य) और (एवमादिसु बहुसु कारणसतेसु) इस प्रकार के बहुत-से सैकड़ों कारणों को ले कर (अलियं भणेज्ज) मिथ्या बोल देता है, क्योंकि (लुद्धो) लोभ के विकार से घिरा हुआ साधक (लोलो) सत्यव्रत से डगमगा कर (अलियं भणेज्ज) झूठ बोलता ही है । (तम्हा) इस कारण (लोभो न सेवियवो) लोभ का सेवन नहीं करना चाहिए । (एवं) इस प्रकार के चिन्तन से (मुत्तीए) निर्लोभता से. (भावितो) संस्कारित (अंतरप्पा) अन्तरात्मा (संजयकरचरणनयणवयणो) अपने हाथ, पैर, आंख और मुख पर अंकुश रखने वाला - इन्हें वश में करने वाला; (सूर) धर्मवीर साधक (सच्चज्जवसंपन्नो) सत्यता और सरलता से परिपूर्ण (भवति) हो जाता है। (४) (चउत्थं) चतुर्थभावना भयविजय-धैर्यप्रवृत्तिरूप है, वह इस प्रकार है-(न भाइयव्वं) भय नहीं करना चाहिए । (भोतं) भयभीत मनुष्य पर (खु) अवश्य ही, (भया) अनेकों भय (लहुयं) शीघ्र (अइति) आ कर हमला कर देते हैं । (भीतो) डरपोक (मणूसो) आदमी सदा (अवितिज्जओ) अद्वितीय-अकेला-असहाय होता है । (भीतो) भयभीत मनुष्य (भूतेहि) भूत-प्रेतों से (घिप्पइ) पकड़ लिया जाता है । (भोतो) डरपोक आदमी (हु) निश्चय ही, (अन्न पि) दूसरे को भी (भेसेज्जा) डरा देता है, भयभीत करता है, (भीतो) डरने वाला साधक (तवसंजमंपि) तप और संयम को भी (हु) अवश्य (मुएज्जा) छोड़ बैठता है, (य) तथा (भीतो) भय करने वाला साधक (भरं) महत्वपूर्ण कार्य का भार-उत्तरदायित्व, अथवा संयम के भार को (न नित्थरेज्जा) नहीं निभा सकता, अन्त तक पार नहीं लगा सकता, (च) और (भीतो) भीरू साधक (सप्पुरिसनिसेवियं) सत्पुरुषों के द्वारा सेवन किए हुए-आचरित (मग्गं) मार्ग का (अणुचरिउ) अनुसरण - अनुगमन करने में (न समत्थो) समर्थ नहीं होता । तिम्हा) इसलिए (भयस्स) दुष्ट मनुष्य, दुष्ट तिर्यञ्च तथा दुष्टदेव के निमित्त से उत्पन्न हुए बाह्यभय से एवं आत्मा में उत्पन्न हुए अन्तरंगभय से (वा) अथवा (वाहिस्स) प्राणघातक कुष्ट, क्षय आदि बीमारी से (वा) या (रोगस्स) ज्वर आदि रोग से, (वा) अथवा (जराए) बुढ़ापे से (वा) या (मच्चुस्स) मृत्यु से (वा) अथवा (अन्नस्स एव. मादियस्स) इसी प्रकार के इष्टवियोग–अनिष्टसंयोग आदि भय के अन्यान्य कारणों से (न भाइयव्वं) डरना नहीं चाहिए । (एवं) इस प्रकार का चिन्तन करके (धज्जेण)
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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