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________________ सातवां अध्ययन : सत्य-संवर ६४१ और विनय का एक साथ घात कर देता है, क्रोधी मनुष्य (वेसो हवेज्ज) अप्रिय-द्वेष का भाजन बन जाता है, (वत्थु भवेज्ज) दोषों का घर बन जाता है, (गम्मो हवेज्ज) तिरस्कार का पात्र बन जाता है,तथा (वेसं वत्थु गम्मोभवेज्ज) द्वष का कारण–अप्रिय, दोषों का आधार तथा परिभव का पात्र बन जाता है । (एयं) इस मिथ्या आदि को (च) तथा (एवमादियं) इत्यादि प्रकार के (अन्न) अन्य असत्य को (कोहग्गिसंपलितो) क्रोधाग्नि से प्रज्वलित व्यक्ति (भणेज्जा) बोलता है। (तम्हा) इसलिए (कोहो न सेवियव्वो) क्रोध का सेवन नहीं करना चाहिए। (एवं) इस प्रकार (खंतीए) क्रोधनिग्रहरूप क्षमाभाव से, (भावितो) सुसंस्कृत हुआ (अंतरप्पा) अन्तरात्मा (संजयकरचरणनयणवयणो) अपने हाथ, पैर, आंख और मुह को संयमित–नियन्त्रित करने वाला, (सूरो) पराक्रमी तथा (सच्चज्जवसंपन्नो) सत्य और सरलता से सम्पन्न (भवति) हो जाता है । (३) (ततियं) तृतीय भावना लोभ-संयमरूप निर्लोभतायुक्त है, वह इस प्रकार है- (लोभो न सेवियव्वो) लोभ का सेवन नहीं करना चाहिए। लुद्धो लोलो) लोभी मनुष्य व्रत से चलायमान-सत्य से डांवाडोल हो कर (खेत्तस्स वा) या तो खेत के-खुली जमीन के लिए, (वत्थुस्स वा कतेण) अथवा वस्तु-मकान-दुकान,घर, हवेली आदि के लिए (अलियं भणेज्ज) झूठ बोलता है, (लुद्धो लोलो) लुब्ध व्रत से डिग कर (कित्तीए) कोति–प्रतिष्ठा के लिए, (लोभस्स वा कएण) या लोभ-धन के लोभ के निमित्त से (अलियं भणेज्ज) मिथ्या बोलता है, (लुद्धो) लालची आदमी (लोलो) सत्यवत से विचलित हो कर (रिद्धीए व) या तो ऋद्धि-सम्पत्ति के लिए (सोक्खस्स व कएण) अथवा ऐश-आराम आदि के रूप में इन्द्रिय-सुख के लिए (अलियं भणेज्ज) मृषावचन बोलता है, (लुद्धो) लोभग्रस्त मनुष्य (लोलो) सत्यव्रत में अस्थिर हो कर (भत्तस्स व पाणस्स व कएण) या तो भोजन के लिए या पेय वस्तु के लिए (अलियं भणेज्ज) असत्य बोलता है; (लुद्धो) लोभी पुरुष (लोलो) व्रत से डगमगा कर (पीढस्स व फलगस्स व कएण) या तो पीठ-आसन-चौकी के अथवा पट्ट के हेतु (अलियं भणेज्ज) असत्य बोलता है, (लुद्धो लोलो) लोभ के वशीभूत व्रत से चंचल हुआ मनुष्य (सेज्जाए व। या तो शय्या-वसति के लिए (संथारगस्स वा कएण) अथवा साढ़े तीन हाथ लंबे बिछौने के लिए (अलियं भणेज्ज) झूठ बोलता है, (लुद्धो लोलो) लोभी मनुष्य ब्रत से डिगकर (वत्थस्स व पत्तस्स व कएण) या तो कपड़े के लिए या पात्र-बर्तन के लिए (अलियं भणेज्ज) मिथ्यावचन कहता है, (लुद्धो लोलो) लोभी नर व्रत से चलायमान हो कर (कंबलस्स व पायपुछणस्स व कएण) या तो कम्बल के ४१
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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