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________________ ६२८ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र 'तं सच्चं भगवं... 'जं तं लोकमि सारभूयं, गंभीरतरं महासमुद्दाओ . सव्वाणि वि ताई सच्चे पइट्टियाइं ।' सत्य के दस भेद-शास्त्रकार ने मूलपाठ में कहा है-'तं सच्चं दसविहं' अर्थात् वह सत्य दस प्रकार का है । दशवकालिक सूत्र की हारिभद्रीवृत्ति में उल्लिखित गाथा इसके लिए प्रस्तुत है "जणवय-सम्मय-ठवणा नाम-रूवे पडुच्चसच्चे य। ववहार-भाव-जोगे दसमें उवम्मसच्चे य॥"१ अर्थात्- (१) जनपदसत्य, (२) सम्मतसत्य, (३) स्थापनासत्य, (४) नामसत्य, (५) रूपसत्य, (६) प्रतीत्यसत्य, (७) व्यवहारसत्य, (८) भावसत्य, (६. योगसत्य और (१०) उपमासत्य, ये दस सत्य के भेद हैं।' ___ जनपदसत्य-जिस देश के लिए जो शब्द जिस अर्थ में रूढ़ होता है, उस देश में उस अर्थ के लिए उसी शब्द का प्रयोग करना जनपदसत्य कहलाता है। जैसे दक्षिण देश में चावल को भात या कुलु कहते हैं,अतः वहाँ उन शब्दों का प्रयोग जनपद सत्य है। पंजाबप्रान्त में नाई को राजा कहते हैं, जबकि अन्य प्रान्तों में नृप को राजा कहा जाता है । अतः पंजाब में नाई के लिए राजा शब्द का प्रयोग जनपदसत्य है। ___सम्मतसत्य-बहुत-से मनुष्यों की सम्मति से जो शब्द जिस अर्थ का वाचक .' मान लिया जाता है, उसे सम्मतसत्य कहते हैं। जैसे 'देवी' शब्द का पटरानी अर्थ बहुजनसम्मत है। वैसे देवी देवांगना के अर्थ में प्रयुक्त होती है। . स्थापनासत्य-किसी मूर्ति आदि में किसी व्यक्ति विशेष की, सिक्के, नोट आदि में रुपयों की या एक आदि अंक के आगे एक बिन्दु होने पर दस की, दो बिन्दु होने पर सौ की कल्पना कर ली जाती है, या शतरंज के पासों में हाथी-घोड़ा आदि की कल्पना कर ली जाती है, इसे स्थापनासत्य कहते हैं । नामसत्य-गुण हो चाहे न हो, किसी व्यक्ति या पदार्थ का कोई नाम रख लेना नामसत्य है । जैसे कुल की वृद्धि न करने पर भी लड़के का नाम रख दिया जाता है-कुलवर्द्धन । रूपसत्य - पुद्गल के रूप आदि अनेक गुणों में से रूप की प्रधानता से जो वचन कहा जाय, उसे रूपसत्य कहते हैं। जैसे किसी आदमी को गोरा (श्वेत) कहना । उस मनुष्य में रूप के अलावा रस, गन्ध आदि अनेक गुण हैं ; तथापि रूप की अपेक्षा से १ निम्नोक्त गाथा भी सत्य के १० भेदों के सम्बन्ध में मिलती है "जणपदसम्मतिठवणा णामे रूवे पडुच्च-ववहारे । संभावणे य भावे उवमाए दसविहं सच्चं ॥' -सम्पादक
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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