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________________ सातवां अध्ययन : सत्य-संवर मिलती है, आनन्द की अनुभूति होती है । परन्तु यह शान्ति क्षणिक, परिमित, बाह्य और पौद्गलिक है । सत्य चन्द्रमण्डल से अनेक गुनी अधिक आत्मिक शान्ति जीवों को प्रदान करता है तथा नित्य (अनन्तकाल) आत्मा के साथ रहने वाला है। इस लिए चन्द्रमंडल की सौम्यता सत्य के सामने तुच्छ है । सूर्यमण्डल से भी सत्य की दीप्ति अत्यधिक है । इसका आशय यह है कि सूर्य की दीप्ति प्रकाश) तो बाह्य अन्धकार का ही नाश करती है, साथ में संताप भी देती है । लेकिन सत्य की दीप्ति अन्तरंग के मिथ्यात्वरूप सघन अन्धकार को छिन्न भिन्न कर देती है और जीवों के सांसारिक संताप को शान्त करती है । इसलिए सूर्यमंडल से सत्य की दीप्ति (प्रकाश या तेजस्विता) कहीं अधिक है। शरत्काल का आकाशतल स्वच्छ और निर्मल होता है ; लेकिन सत्य उससे भी बढ़कर निर्मल है । क्योंकि शरत्काल में मेघ तथा रज आदि के न होने से गगनतल साफ प्रतीत होता है, लेकिन उसकी वह स्वच्छता कुछ समय के लिए रहती है । कभीकभी उस पर कोहरा धुध छा जाता है, बादल भी उमड़ कर आ जाते हैं, जबकि सत्य सम्पूर्ण दोषों तथा मिथ्यात्व, अज्ञान आदि के कोहरे से रहित होने के कारण अत्यन्त स्वच्छ रहता है । और शुद्ध आत्मा का गुण होने से यह अविनाशी भी है। इसलिए इसकी निर्मलता शरत्कालीन गगनतल से कहीं अधिक है । गन्धमादनपर्वत चन्दन के वृक्षों के कारण सदा सुगन्धित रहता है, मगर सत्य तो उससे भी बढ़ कर सुरभित होता है, क्योंकि यह सहृदय मनुष्यों के हृदय को अपने गुणों के आकर्षण से खींच लेता है, उनके मन को आह्लादित कर देता है। सत्य में आश्चर्योत्पादक शक्ति निहित है । जितने भी मंत्र, तंत्र, विद्या आदि के चमत्कार हैं, वे सब सत्य से अनुप्राणित होते हैं । सत्य के बिना वे सब पक्षहीन पक्षी की तरह निरर्थक हैं । जगत् में हम जितने भी मंत्रादिप्रयोगों के चमत्कार देखते हैं, जप से अनिष्टादिनिवारण देखते हैं, अनेक विद्याओं की सिद्धि का अनुभव करते हैं. अस्त्र-शस्त्र के चमत्कार सुनते हैं, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र आदि का अद्वितीय वस्तुविवेचन पढ़ते हैं, अत्यन्त मनोरंजक ललित कलाओं, शिल्पों आदि का कौशल देखते हैं ; ये सब सत्य पर आश्रित हैं । सत्यवादी मनुष्य इन्हें अतिशीघ्र प्राप्त कर लेता है, इनकी पराकाष्ठा तक पहुंच जाता है । लेकिन असत्यवादी को मंत्र विद्या आदि सिद्ध नहीं होती। उसे कला आदि का ज्ञान भलीभांति नहीं हो पाता। कदाचित् गुरुकृपा से हो भी जाय तो वह अधूरा ही रहता है या बिजली के समान अपनी क्षणिक चमक दिखा कर अस्त हो जाता है । सत्यवादी को पा कर ये सब दिनोंदिन बढ़ते जाते हैं,स्वपर-उपकारक भी बनते हैं । मूलहीन वृक्ष की तरह सत्यहीन मंत्रादि या विद्याकलादि टिक नहीं सकते । अतः ये सब सत्य पर अवलम्बित हैं । सत्य की इसी गरिमा एवं महिमा को स्पष्ट करने के लिए शास्त्रकार कहते हैं
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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