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________________ ५६२ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र अर्थात् –प्रथम व्रत की ये पाँच भावनाएं प्राणातिपात-हिंसा से विरतिरूप अहिंसा की सब ओर से रक्षा के लिए हैं। यही इन भावनाओं की वास्तविक उपयोगिता है। अगर ये भावनाएं न होती तो साधक न जाने कहाँ से कहाँ जा कर पतन के गड्ढे में गिरता। अहिंसामहाव्रत की प्रतिज्ञा ले लेने मात्र से ही तो अहिंसा का पालन नहीं हो जाता । जीवन के हर मोड़ पर साधक के सामने अहिंसा रहे, हर प्रवृत्ति में वह अहिंसा को अनुप्राणित देखे, तभी अहिंसा का पालन हो सकता है। और यह सब भावनाओं से जनित संस्कारों की दृढ़ता पर निर्भर है। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि अहिंसा के साधक के लिए इन भावनाओं का जीवन में कितना महत्व और स्थान है । स्पष्ट शब्दों में कहें तो जब तक इन पांचों भावनाओं के शुद्ध स्वरूप का ज्ञान और तदनुसार विशुद्ध चिन्तन नहीं हो सकेगा, तब तक प्राणातिपातविरमणरूप अहिंसामहाव्रत का पालन यथार्थरूप में नहीं होगा। अब सवाल यह होता है कि मनुष्य के जीवन में तो असंख्य प्रवृत्तियाँ होती हैं, फिर इन पांच ही भावनाओं से कैसे काम चलेगा ? असंख्य भावनाओं की जरूरत रहेगी? इसके उत्तर में इतना ही निवेदन है कि प्रवृत्तियाँ असंख्य होते हुए भी उनका वर्गीकरण करके मुख्य ५ भागों में उन्हें बांट दिया गया है,अतः उन सब पर ये पांच भावनाएं ही पूरा पूरा नियंत्रण रख सकेंगी। संघ में अनेकों साधु होते हुए भी उन पर नियंत्रण साधुओं के नायक आचार्य के हाथ में होता है, वैसे ही प्रवृत्तियां अनेकों होते हुए भी उनको पांच वर्गों में बाँट कर जिस वर्ग की जो प्रवृत्ति होगी, उस पर उस वर्ग की भावना, नियंत्रण कर सकेगी। वैसे भी साधुओं के जीवन में सीमित और आवश्यक प्रवृत्तियाँ ही होती हैं । अनावश्यक प्रवृत्तियों को तो वहां स्थान ही नहीं है। इसलिए साधुजीवन में सम्भावित हिंसा की प्रवृत्तियों पर इन पांचों भावनाओं का पहरा रहने से द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से हिंसा को प्रवेश का मौका नहीं मिलेगा। . साधुजीवन में जो सबसे बड़ी प्रवृत्ति है, वह इन्द्रियों की है। इन में से वाणी और हाथ की प्रवृत्तियों को छोड़ कर बाकी इन्द्रियों की प्रवृत्तियों को अशुभ से रोकने और शुभ में प्रवृत्त करने वाली अहिंसामहाव्रत की प्रथम भावना-ईर्या समिति है। ईर्या का वास्तविक अर्थ चर्या है और चर्या में केवल गमनागमन ही नहीं आता, अपितु सोना, बैठना, जागना, हाथ-पैर हिलाना, आंखों से देखना, कानों से सुनना आदि प्रवृत्तियाँ भी आ जाती हैं । इसका सबूत यह है कि शास्त्रकार ने इसी सूत्रपाठ में प्रथम भावना के वर्णन में आगे चल कर कहा है-सव्वपाणा न हीलियव्वा ..." न छिदियव्वा न भिंदियव्वा न वहेयव्वा, न भयं दुक्खं च किंचि लम्भा पावेउं जे ।' इसमें प्राणियों की अवहेलना, निन्दा, गर्दा, हिंसा, छेदन, भेदन, वध, भयोत्पादन, दु:खोत्पादन आदि प्रवृत्तियों का निषेध किया है। पैरों से तो गमना
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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