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छठी अध्ययन : अहिंसा-संवर
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वचनों का उच्चारण करके तथा शरीर असावधानी से गमनागमन आदि विभिन्न चेष्टाएँ करके द्रव्यहिंसा करेगा । अतः इन तीनों प्रवृत्तिस्रोतों से होने वाली दुष्प्रवृत्तियों पर रोक लगाना अहिंसा के पूर्ण आराधक के लिए बहुत जरूरी है । प्रश्न होता है कि इन तीनों की दुष्प्रवृत्तियों को रोकने के लिए कौन-सा उपाय सर्वोत्तम रहेगा ? इसके समाधान हेतु शास्त्रकार अहिंसामहाव्रत की पूर्वोक्त पांच भावनाएँ प्रस्तुत करते हैं । ये पांचों भावनाएँ मिल कर साधक को हिंसा में प्रवृत्त होने का खतरा उपस्थित होते ही तुरंत सावधान कर देती हैं, उसे आगे बढ़ने से रोक देती हैं । जिस प्रकार माता अपने बालक को अच्छे रास्ते पर चलने की हिदायत देती है, स्वयं उसकी उ ंगली पकड़ कर चलना सिखाती है और संकट से बचाती है; साथ ही बुरे रास्ते पर जाने से रोकती है, पहले से ही वह बुरे रास्ते पर जाने के खतरों से उसे सावधान कर देती है; उसी प्रकार ये पांचों भावनाएँ भी साधक के लिए माताओं की तरह हैं । ये भी साधक को अच्छे रास्ते पर प्रवृत्ति करने के लिए प्रेरित करती हैं, संयम रूप सन्मार्ग पर चलना सिखाती हैं, साधक को संकटों से भी से बचाती हैं, और बुरे रास्ते की ओर प्रवृत्ति करने से रोकती हैं। तमाम प्रवृत्तियों को बंद करवा कर ये साधक के जीवन का सर्वाङ्गीण विकास भी नहीं रोकतीं और उसे विकास घातक दुष्प्रवृत्तियों में भी प्रवृत्त नहीं होने देतीं ।
जीवन के हर मोड़ पर प्रहरी बन कर ये साधक को अपनी प्रवृत्तियों में सावधान रहने का संकेत देती हैं। अगर साधक अपनी प्रवृत्तियों को खुला मैदान दे देता है तो उसकी अहिंसा की साधना खटाई में पड़ जाती है । ये पांचों भावनाए अहिंसा के साधक में अहिंसा के संस्कार इतने मजबूत कर देती हैं कि समय आने पर वह हिंसाजन्य प्रवृत्ति की ओर से तुरंत मुंह मोड़ लेता है । संस्कार बार-बार के अभ्यास से ही सुदृढ़ होते हैं। अहिंसा का साधक जब अपने मन, वचन, काया को इन भावनाओं का आश्रय ले कर शुभ प्रवृत्तियों की ओर मोड़ लेता है तो उसे अशुभ प्रवृत्तियों की ओर झाँकने का मौका ही नहीं मिलता। आखिरकार माता भी तो अपनी संतान में उच्च भावनाएँ भर कर सुसंस्कार जगाती है । कहा भी है'भावणाजोगसुद्धप्पा जले नावा व आहिया' यानी भावना के प्रयोग से शुद्धात्मा उसी प्रकार है, जिस प्रकार जल पर नौका पड़ी रहती है, फिर भी डूबती नहीं है । अतः यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि ये पांचों भावनाएँ अहिंसा के साधक की रक्षा करने के लिए बाड़ के समान हैं । जैसे बाड़ से अनाज के लहलहाते खेत की रक्षा हो जाती है, वैसे ही भावनारूपी बाड़ से अहिंसामहाव्रती साधक की और उसके अहिंसा व्रत की रक्षा हो जाती है । शास्त्रकार स्वयं इस बात की पुष्टि करते हैं'तस्स इमा पंच भावणातो पढमस्स वयस्स होंति पाणातिपात वेरमणपरिरक्खणट्ठयाए ।