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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्रे
करने और भिक्षाचर्या में सम्भावित दोषों से बचने की विधि का विशदरूप से निर्देश कर चुके । लेकिन जहां तक शरीर है, वहां तक शरीर से सम्बन्धित खाना-पीना, चलना-फिरना, उठना-बैठना, मलमूत्रादि का उत्सर्ग करना, सोना-जागना, बोलना, सोचना-विचारना आदि विभिन्न प्रवृत्तियों का जमघट लगा , रहेगा । इन प्रवृत्तियों को सर्वथा ठुकरा कर निश्चेष्ट हो कर एक जगह बैठना भी सम्भव नहीं है । अतः इन और ऐसी ही शरीरसम्बद्ध अन्यान्य प्रवृत्तियों को करते समय हिंसा हो जाना स्वाभाविक है । अतः भोजनादि आवश्यकताओं की पूर्ति की समस्या को हल करने के बाद इस सूत्रपाठ में शास्त्रकार ने बताया है कि शरीर से सम्बन्धित अन्यान्य प्रवृत्तियों में होने वाली हिंसा से साधु कैसे बचे और अहिंसा का ठीक ढंग से कैसे पालन करे ? इसके लिए शास्त्रकार ने संवरद्वार की प्रस्तावना में प्रतिज्ञा की थी 'तीसे सभावणाए उ किंचि वोच्छं गुणुद्देसं' अर्थात्-भावनाओं सहित उस. अहिंसा के कुछ गुणों का वर्णन करूंगा।' तदनुसार उन्होंने प्रथमसंवर अहिंसावत की मुख्य पांच भावनाएं बताई हैं, ताकि इन भावनाओं के सहारे साधुजीवन अन्त तक टिका रह सके और इनके अनुसार चल कर अहिंसा भगवती की पूर्णरूप से उपासना कर सके, साथ ही अहिंसापालन में उसकी रुचि, श्रद्धा, स्फूर्ति, संवेग, उत्साह, धृति, शक्ति, दृढ़ता और तीव्रता में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहे ।
पांच भावनाओं को उपयोगिता-चूंकि साधु एक ओर से जीवनपर्यंत छोटे से छोटे और बड़े से बड़े प्रत्येक प्राणी की मन-वचन-काया से सर्वथा हिंसा करने का . त्याग करता है, और दूसरी ओर से जीवनपर्यन्त समस्त प्राणियों की सब प्रकार से रक्षा करने की प्रतिज्ञा लेता है। यही उसके अहिंसामहाव्रत का स्पष्ट रूप है। मानव-जीवन में विभिन्न प्रवृत्तियों के स्रोत तीन हैं - मन, वचन और काया। इन्हीं से अहिंसा का पालन हो सकता है । पूर्ण अहिंसक मुनि तभी अहिंसा का ठीक ढंग से पालन कर सकता है, जब वह आत्मचिन्तन आदि शुद्धोपयोग में सतत लीन रहने के लिए अपने मन को धर्मध्यान और शुक्लध्यान में लगाए रखे। मगर उत्तम संहनन वाले महामुनि भी अन्तर्मुहूर्त से ज्यादा इन दोनों शुभ ध्यानों में टिके नहीं रह सकते,
और मन, वचन और काया के योगों की प्रवृत्ति भी सर्वथा तो तभी रुकती है, जब साधक १४वें सर्वोच्च गुणस्थान की भूमिका पर पहुंच जाता है । इसलिए मध्यम मार्ग यही फलित होता है कि मन, वचन और काया से होने वाली विभिन्न प्रवृत्तियाँ सर्वथा रोकी न जाय, साथ ही लक्ष्य से विपरीत जाती हुई मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों से साधक को बचाया भी जाय। अगर इन तीनों प्रवृत्तिस्रोतों की प्रवृत्तियों को खुल कर खेलने दिया जायगा तो इनसे निश्चित ही हिंसा होगी। मन बुरे विचारों में प्रवृत्त हो कर भाव हिंसा करेगा ; वाणी कटु, कठोर, घातक और दुष्ट