________________
छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर
५८६ घास का बिछौना, वस्त्र, पात्र, कंबल, दंड, रजोहरण, चोलपट्टा, मुखवस्त्रिका
और पैर पौंछने का कपड़ा आदि अथवा ये तथा और भी दूसरे उपकरण संयम की वृद्धि-पुष्टि के लिए रखने चाहिएँ । संयमी साधु को उनका सदा प्रतिलेखन, प्रस्फोटन-झटकने और प्रमार्जन करने में दिन और रात में सतत अप्रमादी हो करभाजन-काष्ठ पात्रआदि,भाण्ड-मिट्टी के घड़े आदि उपधि एवं वस्त्रादि उपकरण रखने और ग्रहण करने चाहिए।
इस प्रकार आदानभांडनिक्षेपणसमिति के योग से भावित अन्तरात्मा शबलदोषों से रहित, असंक्लिष्ट परिणामो और अखंड चारित्र की भावनाओं से युक्त संयमी सुसाधु ही अहिंसक होता है।
- इस प्रकार यह अहिंसारूप संवरद्वार मन-वचन-काया द्वारा भावनारूप पांचों कारणों से सदा आमरणान्त सुरक्षित है, वह सम्यक्प से आचरित होने पर हृदय में अच्छी तरह जम जाता है। तथा यह पांच भावनारूप व्यापार धृतिमान् और बुद्धिमान् साधु के लिए अनाश्रवरूप-नये कर्मों के आगमन से रहित है, यह दयनीयता से रहित है, या कालुष्य से रहित है, कर्मजल के प्रवेश से रहित अच्छिद्र है, शुद्ध है तथा सभी जिनवरों द्वारा अनुज्ञात है। अतः पंचभावनारूप इस प्रवृत्ति को धारण करना चाहिए। इस प्रकार विधिपूर्वक समय पर स्वीकृत किया हुआ, पालन किया हुआ, सुशोभित या शोधित, अच्छी तरह से अन्त तक पार लगाया हुआ, कीर्तित और आराधित यह प्रथम संवरद्वार वीतराग की आज्ञा से अनुपालित होता है। इस प्रकार ज्ञातकुल में उत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने सिद्धों की प्रधान आज्ञारूप यह सवरद्वार सामान्यरूप से बताया है, विविध नयों की अपेक्षा से भेद-प्रभेदों द्वारा इसका वर्णन किया है, यह प्रसिद्ध है, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है, जनता में इसकी अच्छी प्रतिष्ठा जमी हुई है, अथवा जनता के सामने भगवान् ने इसे बार-बार कहा हैं, इसके सम्बन्ध में प्रभु ने देवा, मनुष्यों और असुरों की परिषद् में अच्छे ढंग से उपदेश दिया है। यह प्रशस्त मंगलरूप प्रथम संवरद्वार समाप्त हुआ । ऐसा मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूँ।
__ व्याख्या पूर्वसूत्रपाठ में पूर्णरूप से अहिंसा के आराधक महाव्रती साधु के जीवन की आहार-वस्त्र-पात्रादि मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति में संभावित आरम्भ-समारम्भजन्य हिंसा से बच कर अहिंसा का पूर्णतया पालन करने हेतु शास्त्रकार भिक्षाचरी