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________________ ५८८ ... श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र दोष लगे हों, उनका प्रतिक्रमण करके निवृत्त हो जाय और तब गुरु के समक्ष अपने दोषों की प्रगट आलोचना करके गुरु अथवा गुरु के द्वारा निर्दिष्ट बड़े साधु के उपदेश के अनुसार अतिचारों से रहित होकर अप्रमत्त रहे । और पुनः अज्ञात या आलोचना से शेष रहे हुए अनेषणादोषों के बारे में प्रयत्नवान् हो कर प्रतिक्रमण करके प्रशान्त हो जाय और तदनन्तर एक मुहूर्तभर सुखपूर्वक बैठा- बैठा धर्मध्यान, शुभयोग, ज्ञान और स्वाध्याय में अपना मन लगाए । श्रुतचारित्र रूप धर्म में उसका मन संलग्न हो, चित्त शून्यता से रहित हो, वह संक्लेशों से रहित, शुभ मन वाला हो, लड़ाई-झगड़ों से दूर रहने वाले शान्त मन का धनी हो अथवा कदाग्रहरहित मन का स्वामी हो, समाहित मन वाला हो, तत्त्वार्थश्रद्धानरूप संवेग और निर्जरा में मन लगा हो, अन्तःकरण तीर्थंकर के प्रवचनों के प्रति वात्सल्य से ओतप्रोत हो, ऐसा साधु अपने स्थान से उठ कर अत्यन्त हृष्टतुष्ट होता हुआ दीक्षाक्रम से बड़े-छोटे साधुओं को भावपूर्वक निमंत्रित करके तथा गुरुजनों द्वारा आहार का वितरण किये जाने पर उचित आसन पर बैठ कर सिरसहित शरीर और हथेली को भलीभांति प्रमार्जित करके गुरु द्वारा दिये हुए सरस आहार में अनासक्त, अप्राप्त । स्वादिष्ट भोजन की लालसा से रहित, दाता आदि की निदा न करता हुआ, स्वादिष्ट वस्तुओं में लीनता न रखता हुआ,कलुषित भावों से मुक्त,लोलुपता से रहित और लोभरहित हो कर, केवल शरीरपोषक ही नहीं, अपितु, परमार्थकारी साधु सुरसुर न करते हुए व चप-चप न करते हुए नतो जल्दी-जल्दी खाए और न ही बहत देर लगाए तथा जमीन पर न गिराते हुए प्रकाशयक्त चौड़े पात्र में यतना से आदरपूर्वक भोजन करे तथा भोजन करते समय भी संयोजन, अंगार, धूम आदि ग्रासैषणा के ५ दोषों से दूर रहे और गाड़ी की धुरी में तेल देने या घाव पर मरहम लगाने के समान केवल संयमयात्रा को सुख पूर्वक चलाने मात्र के लिए, संयम का भार वहन करने के लिए और प्राणों को धारण करने के लिए साधु सम्यक् प्रकार से यतनापूर्वक भोजन करे । उक्त प्रकार से आहार में सम्यक् प्रवृत्ति के योग से भावित अन्तरात्मा शबलदोष से रहित, असंक्लिष्ट चित्तवृत्ति वाला, अखंड चारित्र की भावना से युक्त संयमी सुसाधु ही अहिंसक होता है। पांचवीं भावना आदाननिक्षेपसमिति है, जो इस प्रकार है। साधु को पीठ-चौकी, पट्टा, शय्या, दर्भ या
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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