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________________ छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर ५६३ गमन की या किसी को ठोकर या लात मारने की प्रवृत्ति हो सकती है, बाकी की वध - छेदन - भेदन आदि प्रवृत्तियाँ प्रायः हाथों से होती हैं, कान, आँख, जीभ आदि इन्द्रियाँ उन प्रवृत्तियों में सहायक बनती हैं । इसलिए फलितार्थ यह हुआ कि चर्या में उन तमाम प्रवृत्तियों का समाविष्ट किया जा सकता है, जिनमें बाह्यचेष्टा या हरकत होती हो । तभी पूर्वोक्त पंक्ति के साथ इसकी संगति बैठेगी । 'साधुजीवन में दूसरी प्रवृत्ति है— मन की । मन के अन्तर्गत जितनी भी वैचारिक प्रवृत्तियाँ हैं, उन सबका जन्म मन में ही होता है । इसलिए मनःसमिति अहिंसा की दूसरी भावना है, जो मन से सम्बन्धित तमाम प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करती है । साधुजीवन की तीसरी प्रवृत्ति वाणी से सम्बन्धित है । वचन प्रवृत्ति से सम्बन्धित जितनी भी प्रवृत्तियाँ हैं— जैसे गाली देना, भाषण देना, बकना, निन्दा करना, आक्षेप करना, भय पैदा करना, धमकी देना आदि, उन सबका समावेश वचनप्रवृत्ति में हो जाता है । इसलिए वाणी से सम्बन्धित तमाम प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करने वाली अहिंसा की तृतीय भावना वचनसमिति है । अब दो प्रवृत्तियाँ और हैं, जो साधु-जीवन में खास हैं - ( १ ) भोजन-वस्त्रादि लाने और उनका उपयोग करने की तथा ( २ ) वस्त्र - पात्रादि को उठाने रखने की एवं मलमूत्र, पसीना, लींट, कफ आदि शरीर के विकारों को डालने की । साधु - जीवन की इन दोनों आवश्यक प्रवृत्तियों के लिए अहिंसामहाव्रत की क्रमशः चौथी - एषणासमितिभावना एवं पाँचवीं आदाननिक्ष ेपणसमितिभावना है । इनके सिवाय साधुजीवन के लिए और कोई खास प्रवृत्ति बची नहीं है। बीमार पड़ने पर इलाज या औषधादि प्रयोग जैसी कोई साधुजीवन में आवश्यक प्रवृत्ति बचती भी है, तो उसका समावेश ईर्यासमिति में हो जाता है । पांच भावनाओं का स्वरूप – अब हम क्रमशः इन पांचों भावनाओं के स्वरूप पर प्रकाश डालेंगे — (१) ईर्यासमितिभावना – साधु की गमनागमन आदि जितनी भी चर्याएँ हैं, उन सब में प्रवृत्त होने से पहले साधु आंखों से खूब अच्छी तरह सावधानी से देख ले । उतावली से कोई भी चर्या न करे । रास्ते में चलते समय या स्थान पर भी उठनेबैठने, सोने आदि की चर्या करते समय छोटा या बड़ा, स्थावर या त्रस कोई भी जीव मरे नहीं, डरे नहीं, कुचला न जाय, तकलीफ न पाए, उसे मारा-पीटा या सताया न , बल्कि यहां तक कि वह रास्ते में पड़ा कराह रहा हो, छटपटा रहा हो या तकलीफ पा रहा हो तो उसकी उपेक्षा न करे, न उसके तुच्छ जीवन की बुराई या निन्दा करे, अपितु उसे निर्भय और दुःखमुक्त करने का यथोचित प्रयत्न किया जाय । समस्त प्राणियों ३८
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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