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________________ छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर ५८३ (निसंस) घातक (वहबंधपरिकिलेसबहुलं, बध,बंध और क्लेश से भरपूर, (जरामरणपरिकिलेससंकिलिट्ठ) बुढ़ापा, मृत्यु आदि के क्लेशों से क्लिष्ट वचन (कयावि) कदापि (किंचिवि) जरा-सा भी (न भासियव्वं) नहीं बोलना चाहिए। (एवं) इस प्रकार, (वयसमितिजोगेण) बचन की सम्यक्प्रवृत्तिरूप योग से (भावितो) भावित (अंतरप्पा) अन्तरात्मा, (असबलमसंकिलिट्ठनिव्वणचरित्तभावणाए) शबलदोषरहित, असंक्लिष्ट, अखंडचारित्र की भावना से ओतप्रोत (संजओ) संयत (अहिंसओ) अहिंसक (सुसाहू) उत्तम स्वपरकल्याणसाधक (भवति) होता है । इसके बाद (चउत्थं) चौथी एषणासमितिभावना का स्वरूप इस प्रकार है--(आहार-एसणाए) अशनादिचतुविधआहार को एषणा से (सुद्ध) एषणादोषों से रहित-शुद्ध (उंछं) भ्रमरवृत्ति से अनेक घरों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा (गवेसियव्वं) गवेषणापूर्वक ग्रहण करनी चाहिए । भिक्षाकर्ता साधु (अन्नाए) दाताओं से अज्ञात हो-धनाढ्य घरं का प्रवजित है, ऐसा मालूम न हो, (अकहिए) स्वयं के द्वारा भी यह न कहा जाय कि मैं पहले श्रीमान् था, (अगढिए) अपने परिचितों या सम्बन्धियों के मोह में ग्रस्त न हो, (अदुट्ठ) न देने वालों पर द्वषी न हो-समचित्त हो, (अदीणे) भिक्षा न मिलने पर भी दीन न हो, (अकलुणे) दयनीय न हो, (अविसादी) विषादरहित हो, (अपरितंतजोगी) मन, वचन-काया की सम्यकप्रवृत्ति से अथक पुरुषार्थी हो, (जयणघडणकरणचरियविणयगुणजोगसंपओगजुत्ते ) प्राप्त संयमयोगों को स्थिरता के लिए प्रयत्नशील, अप्राप्त की प्राप्ति के लिए उद्यमवान्, विनय का आचरण करने वाला व क्षमा आदि गुणों की प्रवृत्ति के प्रयोग में जुटा हुआ (भिक्खू) भिक्षाजीवी साधु (भिक्खेसणाते) शुद्ध भिक्षा की अन्वेषणा करने में (जुत्ते) जुटा हुआ (भिक्खचरियं) भिक्षाचर्या के लिए, (सामुदाणेऊण) धनी-निर्धन, ऊँच-नीच-मध्यम सभी घरों में घूमकर (उछ) अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार, (घेत्तण) ले कर (गुरुजणस्स) गुरुजन के पास) पास (आगतो) आ कर (गमणागमणातिचारे पडिक्कमणपडिकते) भिक्षा के लिए जाने-आने में लगे हुए दोषों का प्रतिक्रमण करके ( च ) और ( आलोयणदायणं दाऊण) आलोचना-गुरु के समक्ष दोषों को प्रकट करके (गुरुजणस्स) गुरुजनों के (गुरुसंदिट्ठस्स वा) अथवा गुरु के द्वारा निर्दिष्ट अग्रगण्य साधुवृषभ के (जहोवएस) उपदेश के अनुसार (निरइयार) अतिचारों-दोषों का त्याग करके (अप्पमत्तो) अप्रमत्त—सावधान-प्रमादरहित हो, (पुणरवि) और पुनः (अनेसणाते) अपरिजात या गुरुसमक्ष अब तक जिनकी आलोचना न की हो, ऐसे अनालोचित दोषरूप अनेषणा के बारे में (पयतो) प्रयत्नवान् होकर (पडिक्कमित्ता) प्रतिक्रमण करके (पसंतो)
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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