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________________ छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर लिए-लिए फिरने वाली)। इसका एक अर्थ यह भी होता है कि किसी धनाढ्य भक्त के यहाँ रखी हुई किसी धात्री को, उसकी स्वामिनी से उसके अवगुणवर्णन करके निकलवा देना और उसके बदले दूसरी अपनी परिचित नई धात्री को रखवा कर उस धात्री द्वारा प्रदत्त स्वादिष्ट और स्निग्ध भोजनादि ग्रहण करना, धात्रीपिंडदोष है । दूतीदोष-एक स्थान से दूसरे स्थान पर, एक गाँव से दूसरे गाँव, गृहस्थों का संदेश कहते या कहलाते फिरना तथा दूतीपन के काम को करके गृहस्थ भक्तभक्ताओं की भावना बढ़ा कर आहारादि ग्रहण करना दूतीदोष है। निमित्तदोष-भूत, भविष्य और वर्तमानकाल के लाभालाभ, सुख-दुःख, जीवित-मरण आदि के सम्बन्ध में निमित्तज्ञान गृहस्थ के पूछे जाने या न पूछे जाने पर बताना । फिर वह निमित्त हस्तरेखादि देख कर बताया जाय या शुभाशुभचेष्टा देख कर बताया जाय या ज्योतिषशास्त्र द्वारा बताया जाय, वह निमित्त है। निमित्त बता कर विशिष्ट भोजन आदि पदार्थ ग्रहण करना निमित्तपिंडदोष कहलाता है। आजीवदोष-आजीव वृत्ति या आजीविका को कहते हैं । गृहस्थ को आजीविका के सम्बन्ध में कुछ बतला कर आहारादि लेने से आजीवदोष लगता है । यह ५ प्रकार का है-जातिविषयक, कलाविषयक, गणविषयक,कर्मविषयक और शिल्पविषयक । ब्राह्मणपुत्र को देख कर यह कहना कि 'मैं भी ब्राह्मण था ; यज्ञ, होम आदि क्रियाएँ इस-इस तरह से करता था, तुम भी करो', यह जातिविषयक आजीवदोष है। इसी प्रकार अपना कुल प्रगट करके उसे कुलाचार बताना कुलविषयक आजीवदोष है । इसी तरह गृहस्थजीवन के खेती आदि कर्मों का अनुभव बता कर अपना पूर्वकर्म प्रगट करना कर्मविषयक आजीवदोष है। तथा चित्रकला आदि शिल्प बता कर अपने को गृहस्थजीवन में उक्त शिल्पकलादि से सम्बन्धित बताना शित्पविषयक आजीव दोष है । और अपने आप को अमुक गण का बता कर उस गण का आचार बताना गणविषयक आजीवदोष है । इनसे हानि यह है कि अगर जाति आदि बताने से कोई प्रसन्न हो गया, तब तो आधाकर्मादि दोष लगा कर आहारादि देगा, और यदि कोई नाराज हो गया तो यह कह कर घर से निकाल देगा कि 'नालायक ! तू हमारी जाति, कुल, गण कर्म या शिल्प से भ्रष्ट हो गया !' वनीपकदोष-रंक, भिखारी,याचक आदि की तरह दीनता दिखा कर,गिड़गिड़ा कर,दाता की या दाता जिस गुरु,विप्र आदि का भक्त हो,उसके सामने उस आराध्य गुरु आदि की प्रशंसा करके गृहस्थ से आहार-पानी,वस्त्र,पात्र आदि लेने से वनीपकदोष लगता है । दाता के प्रिय कुत्ता, अश्व, शुक आदि की प्रशंसा से भी यह दोष होता है । चिकित्सादोष--रोगों का प्रतीकार करना चिकित्सा है। चिकित्साशास्त्र के ८ भेद हैं—बालचिकित्सा, शरीरचिकित्सा, रसायन, विषतंत्र, भूततंत्र, शलाका
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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