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________________ ५७४ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र किया और शल्यचिकित्सा । इन आठों तरह की चिकित्सा स्वयं वैद्य बन कर या दूसरों को दवा या इलाज बता कर या वैद्य आदि से करवा कर उस गृहस्थ से आहारादि लेना चिकित्सादोष कहलाता है । क्रोध-मान-माया-लोभपिण्डदोष -- कोप करके गृहस्थ से आहार आदि लेना क्रोधपिण्ड है । उदाहरणार्थ - किसी साधु के मारण, मोहन, उच्चाटन, शाप आदि के प्रभाव को, तप के प्रभाव या कोपकाण्ड को प्रत्यक्ष देख कर भय से कोई गृहस्थ आहारादि दे तो वह क्रोधपंड कहलाता है । अथवा ब्राह्मण आदि दूसरे याचकों को अपने सामने देते देख कर स्वयं को न देने पर दाता गृहस्थ पर कोप करने पर वह इस आहारादि देता है कि साधु को नाराज और क्रोधित करना अच्छा नहीं, इस प्रकार जिसमें क्रोध ही पिंडोत्पादन का मुख्य कारण हो, उस पिंड को ले लेना क्रोधदोष है । किन्हीं साधुओं द्वारा साधु की इस प्रकार से प्रशंसा की जाती है कि 'यदि आज हम सबको बढ़िया भोजन खिला दोगे तो तुम अतिशय लब्धि वाले समझे जाओगे ।' इस पर वह प्रशंसा से गर्व में फूल कर किसी गृहस्थ के यहाँ जा कर उसे दानवीर, धर्मात्मा आदि प्रशंसात्मक वचनों से चढ़ा कर उसके परिवार वालों की इच्छा न होते हुए भी उस अभिमानी गृहस्थ से आहारवस्त्रादि ले लेता है तो वह मानपिंडदोष है । कोई साधु मंत्रादिल से रूप बदल कर, गृहस्थ को धोखे में डाल कर बढ़िया आहार आदि ग्रहण करता है तो वह मायापिंडदोष होता है । लोभवश रसलोलुप बन कर सामान्य घरों में भिक्षा के लिए न जा कर या चना आदि तुच्छ चीजें न ले कर जहाँ लड्डूपेड़ आदि बढ़िया पदार्थ मिलें, वहीं पहुंचे और बढ़िया वस्तुएँ देख कर पात्र भर ले तो वह लोभपिंडदोष होता है । 1 पूर्वपश्चात्संस्तवदोष – साधु जहाँ भिक्षा लेने से पहले और बाद में दाता की प्रशंसा करके आहारादि ले, वहाँ पूर्वपश्चात् संस्तवदोष होता है । यह भी दो प्रकार का होता है— वचनसंस्तव, सम्बन्धसंस्तव । वचनसंस्तव दोष इस प्रकार से होता हैकिसी धनाढ्य के यहाँ भिक्षा के लिए पहुंच कर भिक्षा लेने से पहले ही उसकी झूठी प्रशंसा करना कि 'आप के दानवीरता आदि गुणों की जैसी प्रशंसा सुनी थी, वैसे ही गुण मैं आप में देख रहा हूं ।' अथवा वह दान करने से आनाकानी करे या भूल जाय तो कहना कि 'पहले तो आप बड़े दानी थे, अब दान देना कैसे भूल गए ?' अथवा किसी युवक को देख कर कहना - 'तुम्हारे पिता या बाबा बड़े दानी थे, तुम भी उन्हीं दानवीरों के पुत्र या पौत्र हो, तुम भी दानवीर बनोगे, इस प्रकार की झूठी प्रशंसा भिक्षाग्रहण से पूर्व करना पूर्वसंस्तव है । भिक्षा ग्रहण के बाद दाता का पश्चात्संस्तव इस प्रकार किया जाता है कि "आप बड़े दानी हैं, यशस्वी हैं, आप के दान की कीर्ति तो सर्वत्र विख्यात है, आदि।" अथवा यों कहना कि " आपके दर्शन से हमारी आँखें ठंडी
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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