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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
उसमें से कुछ ले लेना, ओघरूप से - सामान्यरूप से औद्दे शिक है। किन्तु जहां अपने लिए इतना, साधु, बाबा, परिव्राजक या तापस के लिए इतना, इस प्रकार ठीक विभाग करके गृहस्थ द्वारा बनाया गया भोजन विभागरूप से औद्दे शिक है। बाबाओं के लिए, भिखारियों या कंगलों के लिए उनके नाम से अलग निकाल कर किया गया भोजन भी औद्देशिक कहलाता है । संक्षेप में औद्देशिक के ४ भेद हैं-उद्देश, समुद्देश, आदेश और समादेश । जितने भी भिक्षाचर हैं, उन सबको उद्देश्य करके गहस्थ द्वारा बनाया गया भोजन उद्देश है, केवल अन्य वेष धारी बाबाओं को उद्देश्य करके बनाया गया भोजन समुद्देश है, जो भोजन बौद्ध भिक्ष ओं, तापसों या परिव्राजकों के लिए सोच कर बनाया गया हो, वह आदेश है और जो केवल उच्च कोटि के निर्ग्रन्थ साधुओं को देने का संकल्प करके बनाया गया हो, वह आहार समादेश है । ये चार औद्दोशिक दोष हैं।
पूतिकर्म-उद्गमादि दोषों से रहित अपने आप में शुद्ध आहारादि में अशुद्ध आधाकर्मादिदोषयुक्त आहारादि मिला कर गृहस्थ द्वारा साधु को देने पर वह आहार ले लेना पूतिकर्मदोष है।
मिश्रजात-अपने परिवार और साधु दोनों के लिए एक बर्तन में ही मिला कर बनाना और वह साधु को देना मिश्रजात दोष है । १–जितने भी याचक हैं, उनके लिए, २- पाखंडियों के लिए, ३- साधुओं के लिए, इस प्रकार क्रमश: यावर्थिकमिश्र, पाखंडिमिश्र और साधुमिश्र के रूप में यह दोष भी तीन प्रकार का है।
स्थापना—'साधु को देने से पहले दूसरे को नहीं दूंगा',इस अभिप्राय से गृहस्थ द्वारा अपने यहां बना हुआ भोजन अलग ही स्थापित करके रख देना स्थापनादोष है । ऐसी स्थापना दो तरह से होती है-१-अपने स्थान पर चूल्हे या पतीली में स्थापित करना और दूसरे के स्थान पर अच्छे बर्तन आदि में स्थापित करना। यह द्विविध स्थापना दोष भी चिरकालिकी और इत्वरकालिकी के भेद से दो प्रकार का है।
प्राभूतकदोष—साधुओं को गांव में आये जान कर मेहमान को आगे-पीछे करके दिए जाने वाले आहारादि के ग्रहण से प्राभुतकदोष होता है। यह दोष भी उत्कर्षण
और अपकर्षण के भेद से दो प्रकार का है। जहाँ लग्न, उत्सव या पाहुने के आगमन का दिन साधु के आने पर आगे बढ़ा दिया जाय, वहाँ उत्कर्षणप्राभृतक है और जहां इनका दिन घटा दिया जाय यानी साधु के आने से पहले ही पूर्वोक्त उत्सवादि का दिन पहले की किसी तिथि को निश्चित कर लिया जाय, वहां अपकर्षण प्राभृतकदोष है।
प्रादुष्करण - अंधेरी जगह में उजाला करके गृहस्थ द्वारा दिये जाने वाले आहार आदि के लेने से प्रादुष्करण दोष लगता है। यह भी दो तरह का है—संक्रमण और प्रकाशन । साधु के घर पर आने पर गृहिणी द्वारा भोजन या बर्तन आदि