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________________ छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर ५६६ हाथ से जमीन पर नीचे टपकती हुई या गिरती हुई भोजनादि वस्तु को ना छर्दित दोष है । ये दस एषणा के दोष हैं, इनसे भिक्षाजीवी साधु को बचना चाहिए । इसीलिए शास्त्रकार ने कहा है- 'दसहि य दोसेहिं विप्पमुक्के उग्गमउप्पायणेसणासुद्ध – इसका आशय यह है कि साधु के द्वारा भिक्षा के रूप में लिया जाने वाला आहारादि पदार्थ एषणा के दस दोषों से मुक्त होना चाहिए । इस प्रकार उद्गम के सोलह और उत्पादना के सोलह इन बत्तीस दोषों से भी रहित शुद्ध होना चाहिए ; तभी वह साधु अहिंसा का शुद्ध आचरण कर सकेगा । अब क्रमशः हम इन ३२ दोषों के नाम और संक्षेप में उनका लक्षण बताएंगे । उद्गमदोष और उनका स्वरूप – इनका उद्गम नाम इसलिए रखा गया है कि दोष सेवन किये जाते हैं, साधु लेता है तो उसे ये दोष लगते हैं। आहार की उत्पत्ति के समय गृहस्थ दाता द्वारा ये बिना गवेषणा - छान बीन किए ही अगर आहार ले और उसकी वह भिक्षा अशुद्ध हो जाती हैं । - मुद्देस १६ उद्गमदोषों को बताने के लिए निम्नोक्त गाथाएँ प्रस्तुत है - पूइ कम्मे य मीसजाए य । पाहुडियाए पाओयरकीयप्पामिच्चे ॥ १ ॥ परियट्टिए अभिessfoभन्ने मालाडे इ । अच्छज्जे अणिट्ठे अज्झोयरए सोलस पिंडुग्गमे दोसा ॥२॥ ठवणा अर्थात् — १ आधाकर्मिक, २ औद्देशिक, ३ पूतिकर्म, ४ मिश्रजात, ५ स्थापना, १२ उद्भिन्न, १३ मालाहृत, १६ उद्गमदोष हैं; जो पिंड ६ प्राभृतिक, ७ प्रादुष्करण, ८ क्रीत ९ प्रामित्य, १० परिवर्तित ११ अभिहृत, १४ आच्छिद्य, १५ अनिसृष्ट और १६ अध्यवपूरक, ये आहार की उत्पत्ति से सम्बद्ध हैं और दाता से होते हैं । धार्मिक-साधु के निमित्त गृहस्थ द्वारा मन में आधान - धारणा बना लेना कि आज मुझे अमुक साधु के लिए भोजनादि बनाना है, इस प्रकार मन में तय कर लेना और फिर तदनुसार क्रिया करना, आधा कर्म है और आधाकर्मनिष्पन्न उक्त आहार को ग्रहण कर लेना आधाकर्मिक दोष कहलाता हैं । इसे अध:कर्म भी कहते है, उसका अर्थ होता है - संयम से अधःपतन कराने वाला आहारग्रहणदोष । औदेशिक - गृहस्थ द्वारा अपने लिए बनाए हुए आहार आदि के साथ पहले या बाद में साधुओं के उद्देश्य से अधिक तैयार किये गए आहारादि ग्रहण करना औद्दे शिक दोष है । औद्द शिंक दोष दो प्रकार से होता है— ओघरूप से और विभागरूप से । बहुत से भिक्षाजीवियों को देख कर 'भिक्षाचर तो बहुत हैं, कितनों को देंगे, - इस प्रकार मन में सोच कर जिस बर्तन में चावल पक रहे हों, उसमें अपने और दूसरे के उचित अंश का विभाग किए बिना ही कुछ अधिक चावल डाल देना और साधु द्वारा
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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