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________________ ५५६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र एक अहोरात्रि से अधिक न ठहरे, अज्ञातस्थल में अधिक से अधिक दो रात ठहर सकता है । दुष्ट व्याघ्र, सिंह, हाथी आदि हिंस्रपशुओं के डर से या मृत्यु के भय से वह एक कदम भी इधर-उधर आगे-पीछे नहीं खिसकेगा । इत्यादि नियमों का पालक मुनि शरीर पर ममत्व करके छाया से धूप में या धूप से छाया में गमन नहीं करेगा । वह एक महीने तक लगातार ग्रामानुग्राम विचरण करेगा । वह और भी बहुत-से नियमों का पालन करेगा जैसे—पैर में कांटा लग जाने पर या आँख में रजकण, तिनका या मैल पड़ जाने पर वह निकालेगा नहीं। शयन और निवास के लिए तृणसंस्तारक व उपाश्रय.आदि की याचना भी वह दो बार से अधिक नहीं करेगा; प्रतिमा पूर्ण होने की अवधि तक किसी के पूछने पर या शास्त्रीय प्रश्न करने पर भी वह दो बार से अधिक नही बोलेगा। वह ऐसे स्थान में ठहरेगा, जो आगन्तुकागार हो, यानी जहाँ कार्पटिक आदि आ कर रहते हों, अथवा दीवारें न होने से ऊपर से जो घर छाया हुआ . न हो, या अनाच्छादित वृक्ष का मूल हो। निवासस्थान (उपाश्रय) में आग लग जाने पर भी वहाँ से हटेगा नहीं । कदाचित् कोई व्यक्ति बाहें आदि पकड़ कर खींचे तो उस की रक्षा के लिए वहां से निकल भी जायेगा । हाथ, पैर, मुह, शरीर आदि का प्रासुक पानी से भी प्रक्षालन नहीं करेगा। अपवादवश कोई अन्य साधु उसके पैर आदि धो दें तो उसे क्षम्य समझेगा। ये और इस प्रकार के अनेक अभिग्रहों व क्रियाओं से युक्त साधु का एक महीना पूरा होने पर साधुसमुदाय अभिनन्दन करता है। आचार्य आदि निकटवर्ती गांव में आ कर प्रवृत्ति का अन्वेषण करते हैं। फिर वे राजा आदि को सूचित करते हैं कि मासिकभिक्षुप्रतिमा का पालन करके महातपस्वी साधु यहाँ आए हैं । इसके बाद राजा आदि समस्त प्रतिष्ठित लोगों द्वारा सत्कारित-सम्मानित हो कर वह वहाँ प्रवेश करता है। वहाँ उसका बहुत अभिनन्दन किया जाता है। इस प्रकार प्रथम भिक्षुप्रतिमा का स्वरूप है। इसी क्रम से दूसरी से लेकर सातवीं भिक्षुप्रतिमा तक का पालन किया जाता है। पहली से इनमें अन्तर इतना ही है कि पहली प्रतिमा में एक दत्ति आहारपानी ग्रहण करना होता है, जबकि दूसरी, तीसरी से ले कर सातवीं तक क्रमश: दो, तीन से ले कर सात दत्ति तक आहार-पानी लिया जाता है। ___ इसके बाद आठवीं प्रथम सप्तरात्रिदिन की प्रतिमा में चौविहार एकान्तर उपवास करना होता है, पारणे में आयंबिल करना होता है, इसलिए इसमें दत्ति का नियम नहीं होता । इस प्रतिमा में उत्तान या एक पार्श्व से शयन करना होता है । बैठना हो तो समआसन से बैठ सकता है। शरीर की चेष्टाओं से निवृत्त हो कर पूर्वोक्त स्थान निश्चित करके गाँव के बाहर ठहरना होता है। जहाँ देवकृत, मनुष्यकृत या तिर्यंचकृत घोर उपसर्गों को शरीर से अडोल और मन से अकम्पित हो कर सहन करता है।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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