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________________ ५५५ छठा अध्ययन : ओहंसा-संवर जो वज्रऋषभनाराच, नाराच और अर्धनाराच इन तीनों संहननों में से किसी एक संहनन से युक्त हो, परिषहसहन करने में दृढ़ सामर्थ्यवान् हो, धृति - चित्तस्वस्थता युक्त हो, महासत्त्व हो, अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों में हर्षविषाद न करता हो, सद्भावनाओं से भावित अन्तःकरणवाला भावितात्मा हो, गुरु अथवा आचार्य के द्वारा उसे भलीभांति आज्ञा मिल गई हो, गच्छाचार्य द्वारा उसे अनुमति प्राप्त हो गई हो, साधुसमुदाय में रहते हुए आहारादि के सम्बन्ध में प्रतिमा के योग्य परिकर्म में परिनिष्ठित हो गया हो, वही इन्हें ग्रहण करने योग्य होता है । यानी मासिकी आदि सातों भिक्षुप्रतिमाओं का जो परिमाण बताया गया है, तदनुसार ही परिकर्म का परिमाण है । वर्षावास में इन प्रतिमाओं को स्वीकार नहीं किया जाता और न ही इनका परिकर्म किया जाता है । प्रारम्भ की दो प्रतिमाओं का एकसाथ एक ही वर्ष में, तीसरी-चौथी का भी एक-एक वर्ष में, बाकी की तीन प्रतिमाओं का भी वर्ष में इकट्ठा ही परिकर्म होता है । प्रतिमासाधक को श्रुतज्ञान भी उत्कृष्टतः दश पूर्वों से कुछ कम और जघन्यतःप्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व की तीसरी आचारवस्तु त का होना ही चाहिए । अन्यथा इतने श्रुतज्ञान से रहित मुनि काल आदि को सम्यक् नहीं जान सकेगा, फलतः विराधना कर बैठेगा । वह अपने शरीर का ममत्त्व छोड़ कर देवकृत मनुष्यकृत और तिर्यंचकृत उपद्रव को सहन करने में समर्थ हो, जिनकल्पी की तरह परिषह सहन करने में सक्षम हो । आहारैषणा, पानंषणा, वस्त्रैषणा, ग्रहणषणा और परिभोगषणा इन पांचों प्रकार से शास्त्रविधि के अनुसार एषणा - पिंडादि ग्रहण में उसे भी पारंगत होना चाहिए। इस प्रकार परिकर्म करने के बाद गच्छं से निकल कर यदि आचार्यादि से अनुज्ञा प्राप्त हुई हों तो कुछ समय के लिए अन्य साधुओं में पदार्पण करके शरद्काल में समस्त साधुओं को आमंत्रण दे और उनसे क्षमा-याचना करके निःशल्य और निष्कषाय हो कर मासिकी प्रतिमा का स्वीकार करे । मासिकी भिक्षुप्रतिमा के दौरान वह कुछ नियमों को स्वीकार करे । जैसे मासिकी प्रतिमा में भिक्षा भी दत्तिपूर्वक ग्रहण करे। यानी एक ही अन्न की, एक बार में ही अखण्ड रूप में, वह भी अज्ञात और उछरूप अन्न की दत्ति हो । उसमें भी कृपणादि द्वारा भी फैंक देने योग्य, एक ही स्वामी का; दानदाता का एक पैर देहली के अन्दर हो, दूसरा बाहर हो, उसके द्वारा दिये जाने वाले आहार- पानी का ग्रहण करे । यदि वह किसी जलाशय या किसी स्थल या दुर्ग आदि पर स्थित हो तो जहाँ सूर्य अस्त हो जाय, वहां से सूर्योदय तक जल या आग का उपद्रव होने पर भी एक कदम क्षेत्र आगे न बढ़े । प्रतिमास्वीकृत मुनि ग्राम आदि ज्ञात स्थल में
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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