________________
छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर
५५१ के खा लेने पर भी कम नहीं होता है, अथवा लाई हुई भिक्षा जब तक वह स्वयं भोजन न कर ले तब तक लाखों आदमियों को उसमें से खिला देने पर भी क्षीण-कम न हो ; उसे अक्षीणमहानसलब्धि कहते हैं। इसी प्रकार सीमित जगह में भी तीर्थंकरों के समवसरण में असंख्य देव आदि जनों की तरह जहाँ निर्बाधरूप से असंख्य व्यक्ति क्रमशः बैठ जाय—समा जांय उसे अक्षीणमहालयलब्धि कहते हैं । इन दोनों को मिलाकर अक्षीणकलब्धि कहलाते हैं ।
क्रोधादिवश अनेक योजन क्षेत्र में स्थित वस्तु या व्यक्ति को जलाने में समर्थ तीव्रतेज अपने शरीर से निकालने की शक्ति को तेजोलेश्यालब्धि कहते हैं । असीमकरुणावश तेजोलेश्या के शान्त करने में समर्थ शीतलतेजविशेष की शक्ति को शीतलेश्यालब्धि कहते हैं।
ये सब' लब्धियां भगवती अहिंसा की विशिष्ट आराधना से ही प्राप्त हो सकती हैं।
निष्कर्ष यह है कि यह अहिंसा भगवती की ही कृपा है कि जिसकी सम्यक् आराधना से आराधक के गंदे से गंदे पदार्थ भी अमृत की तरह औषधिरूप बन जाते हैं, मंदबुद्धि भी तीव्रबुद्धि हो जाता है, पुण्यहीन भी अनन्तपुण्यशाली बन जाता है, मामूली-सा आदमी भी विशिष्ट व्यक्ति बन जाता है, पतित से पतित भी पावनतम
और पूजनीय बन जाता है, नीच से नीच भी सर्वोच्च पद पर पहुंच जाता है । सचमुच, यह अहिंसा का ही चमत्कार है !
चउत्थभत्तिएहि उक्खित्तचरएहि सव्वगायपडिकम्मविप्पमुक्केहिं समणुचिन्ना-इस लम्बे सूत्रपाठ में अहिंसा के उन आचरणकर्ताओं का संकेत किया है, जो विविध प्रकार के तप करते हैं, भिन्न-भिन्न रूपों के नियम ग्रहण करते हैं, अलग-अलग तरह के अभिग्रह धारण करके जीवन बिताते हैं, विभिन्न प्रकार के त्याग, संयम और प्रत्याख्यान के संकल्प ले कर आजीवन निभाते हैं ; कई अपने शरीर की विभूषा और सुसंस्कारों के प्रति उपेक्षाभाव धारण करके एकमात्र आत्मा की ही उपासना में संग्लन रहते हैं ; अपने क्लिष्ट कर्मों को काटने के लिए कई रूखे-सूखे, तुच्छ, बासी और जैसे-तैसे अत्यल्प भोजन. पर ही आजन्म निर्वाह करते हैं।
सारांश यह है कि आहारग्रहण के सम्बन्ध में विविध तप, त्याग, प्रत्याख्यान, नियम और अभिग्रह ले कर अपनी आत्मा को तप और संयम से भावित बनाते हैं।
१. लब्धियों का विशेष वर्णन जानने के लिए आवश्यकसूत्रवृत्ति, प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, लब्धिस्तोत्र आदि ग्रन्थों का अवलोकन करें।
-संपादक