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________________ छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर ५४६ जिस सर्प की दाढ़ों में भयंकर विष होता है,उसे आशीविष सर्प कहते हैं। उसकी तरह जो लब्धि तपस्या से या विशिष्ट संयम साधना से प्राप्त हुई हो,और जिसके प्रभाव से ढाई द्वीपपरिमित क्षेत्र में किसी भी प्राणी को शाप आदि दे कर भस्म कर देने तक की शक्ति हो, उसे आशीविषलब्धि कहते हैं। जिस ज्ञान के प्रभाव से इन्द्रियों की सहायता के बिना रूपी द्रव्यों को द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव की अमुक मर्यादा-सीमा तक जानने की शक्ति हो, उसे अवधिलब्धि कहते हैं। जिस ज्ञान के प्रभाव से सामान्यरूप से दूसरे के मन में चिंतित विचार को जानने की शक्ति हो, उसे ऋजुमतिलब्धि कहते हैं, तथा जिसके प्रभाव से विशेष रूप से दूसरे के मन के भावों को जानने का सामर्थ्य हो, उसे विपुलमतिलब्धि कहते हैं। जिस के प्रभाव से त्रिकालवर्ती सम्पूर्ण चराचर लोकालोक को मतिज्ञानादि के बिना अकेले में ही निरावरणरूपसे युगपद् जानने-देखने की शक्ति हो,उसे केवललब्धि कहते हैं । . जिसके प्रभाव से साधक अपने शरीर के सभी प्रदेशों से सुन लेता है अथवा .एक ही इन्द्रिय के प्रभाव से दूसरी सभी इन्द्रियों के विषयों को जान लेता है, अथवा जिसके प्रभाव से सभी इन्द्रियाँ परस्पर एकरूपता को प्राप्त हो जाय, अथवा १२ योजन तक फैली हुई चक्रवर्ती की सेना के एक साथ होने वाले विविध बाजों के शब्दों को, चतुरंगिणी सेना की हलचल या शोर को एक साथ सुन लेता है ; उसे संभिन्नश्रोतोलब्धि कहते हैं। चक्रवर्तित्व, बलदेवत्व, वसुदेवत्व, अर्हत्त्व, ये सब लब्धियाँ प्रसिद्ध हैं। जिसके प्रभाव से अत्यन्त तीव्र गति से दूर तक गमनागमन की शक्ति–चारणशक्ति प्राप्त हो,उसे चारणलब्धि कहते हैं । चारणलब्धि दो प्रकार की होती है-जंघाचरण और विद्याचरण । पवित्र चारित्र वाले जो महामुनि, निदानरहित छट्ठ-अट्ठम आदि विशिष्ट तपस्या के प्रभाव से अतिशयगतिलब्धि से युक्त होते हैं, उन्हें चारणमुनि कहते हैं । उन्हें जो लब्धि प्राप्त होती है, उसे चारणलब्धि कहते हैं। वे पहली उड़ान में तेरहवें रुचकद्वीप तक जाते हैं, वहाँ से लौटते हुए नंदीश्वर द्वीप आते हैं, दूसरी उड़ान में जहाँ से रवाना हुए थे, वहीं वापिस आ जाते हैं। ऊपर एक ही उड़ान में मेरुगिरि के शिखर पर पाण्डुक वन, वापिस लौटते हुए एक ही उड़ान में नंदनवन, और दूसरी उड़ान में जहाँ से रवाना हुए थे, वहीं वापिस आ जाते हैं । ये जंघाचारण मुनि होते हैं। दूसरे विद्याचारण मुनि होते हैं, वे विद्या के बल पर अष्टम तप आदि तपोविशेष के प्रभाव से अतिशयगमनलब्धि प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार जलचारण, पत्रचारण, पुष्पचारण अग्निशिखाचारण, पर्वताग्र गचारण इत्यादि और भी चारणलब्धियाँ होती हैं। उत्पाद आदि १४ पूर्वो के अध्ययन-गुणन की शक्ति पूर्वलब्धि कहलाती है।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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