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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
है । जीव जब ग्रन्थिभेद करके सम्यक्त्व पा लेता है, तदनन्तर श्रावक के स्थूल हिंसा विरमण आदि पांच अणुव्रतों की प्राप्ति होना अणुव्रतलब्धि कहलाती है । पंचाश्रवविरमण, पंचेन्द्रियनिग्रह, कषायजय और तीन दण्डों से विरति; इस प्रकार १७ प्रकार के संयम की लब्धि सर्वविरतिलब्धि कहलाती है । कान, मुंह, नाक, आंख और जीभ आदि शरीर के अवयवों से पैदा होने वाला मल जिसके प्रभाव से सुगन्धित होकर औषधिरूप बन जाता है, उसे मलौषधिलब्धि कहते हैं । मूत्र और विष्ठा जिसके प्रभाव से औषधि रूप बन कर रोगोपशमन करने में समर्थ हो जाते हैं, उसे विप्रुषलब्धि कहते हैं । जिस लब्धि के प्रभाव से साधु के हाथ आदि के द्वारा किसी रोगी को छूने मात्र से ही रोग मिट जाते हैं, उसे आमश षधिलब्धि कहते हैं । जिस लब्धि को प्राप्त हुए पुरुष द्वारा अपने या दूसरे के रोग को मिटाने की बुद्धि से कफ के लगाने मात्र से रोग मिट जाता है, उसे खेलौषधिलब्धि कहते हैं। जिसके शरीर के सभी अवयव या अवयवों के विकार औषधिरूप बन कर व्याधि निवारण में समर्थ होते हैं, अथवा आमर्श - औषधि आदि सभी औषधिलब्धियां जिस एक ही साधु को प्राप्त हुई हों, उसे सर्वोषधिलब्धि कहते हैं । ऐसे योगिराज के नख, केश, दांत तथा कान, आंख आदि का मैल, या शरीर का स्पर्श ही अमृत की तरह सभी रोगों को मिटा देता है । उसके अंग से स्पर्श किया हुआ पानी भी सभी रोगों को शान्त कर देता है, उसके अंग से स्पृष्ट वायु के स्पर्श से विषमूच्छित व्यक्ति निर्विष हो जाते हैं, विषमिश्रित भोजन भी उसके मुख में प्रविष्ट होते ही निर्विष हो जाता है, उसके मुंह से निकले हुए वचन सुनने मात्र से जीव विकाररहित हो जाते हैं । इतनी शक्ति सर्वोषधिलब्धि में है । वैक्रियलब्धि अनेक प्रकार की होती है - १ महत्त्व- मेरुपर्वत से भी बड़ा शरीर बनाने की शक्ति, २ लघुत्व - - - वायु से भी लघुतर शरीर बनाने की शक्ति, ३ गुरुत्व - वज्र से भी भारी शरीर बनाने की शक्ति, ४ प्राप्ति - जमीन पर बैठे-बैठे अंगुली के अग्रभाग से मेरुपर्वत के शिखर एवं सूर्य आदि को स्पर्श करने की शक्ति, ५ प्राकाम्य – पानी में प्रवेश करने की तरह जमीन में प्रवेश की तथा पानी में डूबने-तैरने की तरह जमीन पर डूबने-तैरने की शक्ति, ६ इशित्त्व - त्रिलोक की प्रभुता या विक्रिया से तीर्थंकर, इन्द्र आदि की ॠद्धि बना लेने की शक्ति, ७ वशित्व समस्त जीवों को वश करने की शक्ति, ८ अप्रतिघातित्व - पहाड़ आदि के बीच में भी निःशंक गमन करने की शक्ति, ६ अन्तर्धान - अदृश्य हो जाने की शक्ति, १० कामरूपिता -- एक साथ अनेक रूप विक्रिया से बना लेने की शक्ति । इसी प्रकार अणिमा आदि सब सिद्धियाँ वैक्रियलब्धि के अन्तर्गत ही हैं ।
यद्यपि देवों को वैक्रियशरीर जन्म से ही प्राप्त होने से उनमें भी पूर्वोक्त सभी प्रकार की शक्ति होती है, लेकिन वह भवप्रत्यय है, गुणप्रत्यय नहीं, इसलिए उसे वैकिलब्धि नहीं कहा है ।