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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
एवं वीतरागत्व प्राप्त नहीं हो सकते । तात्पर्य यह है कि तीर्थकरों ने स्वयं अहिंसा भगवती के प्रत्येक अंगोपांगों का सूक्ष्मतया विश्लेषण करके मन-वचन-काया से उसकी आराधना की है और अन्य अनेक भव्य जीवों को अहिंसा की आराधना करने के लिए प्रेरित किया है। अपने जीवनकाल में भी उन्होंने अहिंसा और उसके पालन करने वालों की अनुमोदना की है। इसी अहिंसा की पूर्ण आराधना करने के फलस्वरूप उन्होंने केवलज्ञान, केवलदर्शन, जिनत्व और तीर्थंकरत्व प्राप्त किया है, तथा त्रिलोकपूज्य, विश्ववत्सल और शीलगुण--विनय-तप एवं संयम आदि के नायक-मार्गदर्शक बने हैं । अहिंसा की सम्यक् आराधना के द्वारा कितनी बड़ी उपलब्धि होती है यह !
ओहिजिणेहिं विण्णाया—इसका तात्पर्य यह है कि अवधिज्ञान भी एक ऐसा ज्ञान है. जो इन्द्रियों की सहायता के बिना केवल आत्मा द्वारा ही होता है, और वह होता है—अमुक-अमुक अवधि अर्थात् सीमा तक ही । इसलिए अवधिज्ञान के मुख्यतया तीन भेद बताए हैं—देशावधि, सर्वावधि और परमावधि । जघन्य देशावधि देवों और नारकों को तो जन्म से (भवप्रत्यय) होता है, जबकि उत्कृष्ट देशावधि, सर्वावधि तथा परमावधिज्ञान मनुष्यों को अहिंसा आदि की विशिष्ट साधना से प्राप्त होता है । छदमस्थ तीर्थङ्करों को परमावधिज्ञान होता है। अहिंसा की सम्यक् आराधना भी उक्त ज्ञान का एक कारण है । जब वे अहिंसा के स्वरूप और कार्यों को ज्ञपरिज्ञा से जान लेते हैं और प्रत्याख्यान परिज्ञा से हिंसा का सर्वथा त्याग करके अहिंसा का आचरण करते हैं, तभी उन्हें उस अहिंसा की आराधना के फलस्वरूप विशिष्ट अवधिज्ञान प्राप्त होता है, जिसके प्रकाश में वे अहिंसा का प्रयोगसहित ज्ञान करते हैं। इसी दृष्टि से विशिष्ट अवधिज्ञानियों ने इस अहिंसा को विशेषरूप से--प्रयोगसहित जान लिया है।
उज्जुमतीहिं विदिट्ठा, विपुलमतीहिं विदिता-ऋजुमति और विपुलमति ये दोनों मनःपर्यायज्ञान के भेद हैं । मनःपर्यायज्ञान द्वारा भी इन्द्रियों की सहायता के बिना मन के भावों को जाना और देखा जा सकता है। परन्तु मनःपर्यायज्ञान की प्राप्ति उत्कृष्ट संयमी या चतुर्दशपूर्वधारक महामुनियों को ही होती है । और इस संयम की साधना में अहिंसा की साधना सर्वप्रथम आती ही है। क्योंकि एक तरह से देखा जाय तो संयम, तप, विनय, सत्य आदि तो अहिंसा की ही पूर्ति के लिए हैं । फलितार्थ यह हुआ कि ऋजुमति और विपुलमति इन दोनों प्रकार के मनःपर्यायज्ञानियों को अहिंसा की उत्कृष्ट साधना के फलस्वरूप ही ये दोनों ज्ञान उपलब्ध होते हैं। इन दोनों कोटि के ज्ञानियों ने अहिंसा को स्वरूपतः और कार्यतः दोनों प्रकार से देखा-परखा है, इसका जीवन में प्रयोग किया है और इसे भलीभांति जाना है। तभी अहिंसा भगवती की कृपा से उन्हें इन विशिष्ट ज्ञानों की उपलब्धि हुई है।