SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 590
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर ५४५ क्षोभरहित, स्थिर, अवग्रहादि मतिज्ञान तथा औत्पातिकी आदि बुद्धियों से युक्त एवं दाढ़ में विष वाले सर्प के उग्र विष के समान अपने तप से उग्र तेज वाले ऋषियों ने, वस्तुतत्त्व के निश्चय और पुरुषार्थ दोनों में जिनकी बुद्धि पूरा काम करती है,उन्होंने एवं नित्य स्वाध्याय तथा चित्तनिरोधरूप ध्यान में रत एवं धर्मध्यान में निरन्तर चित्त को अनुबद्ध–संलग्न रखने वालों ने, पांच महाव्रतरूप चारित्र से यक्त तथा पाँच समितियों में सम्यक प्रवृत्ति करने वालों ने, पापों को शान्त करने वालों ने छहकाया रूप सारे जगत् के वत्सल एवं सदा प्रमादरहित इन पूर्वोक्त गुणयुक्त पुरुषों ने तथा दूसरे गुणों से भी युक्त महात्माओं ने इस पूर्वोक्त भगवती अहिंसा का सतत पालन किया है । ___ व्याख्या प्रस्तुत सूत्रपाठ में अहिंसा की सुदृढ़रूप से आराधना करने वाले पुरुषों काखासतौर से मुनियों का निरूपण किया गया है । साथ ही यह भी ध्वनित किया है कि अहिंसा के विशिष्ट आचरण करने वाले इन महान् आत्माओं के द्वारा किस-किस रूप में आचरण करने से उन्हें क्या-क्या विशिष्ट लब्धियाँ प्राप्त हुई हैं ? वैसे तो मूलार्थ और पदार्थान्वय में इन सभी पदों का अर्थ स्पष्ट किया है ; तथापि कुछ स्थलों पर इनका विशेष रहस्य प्रगट करना और विश्लेषण करना आवश्यक समझ कर नीचे उन पर विवेचन प्रस्तुत कर रहे हैं एसा भगवती अहिंसा अपरिमियनाणदंसणधरेहि " सुठ्ठ विट्ठा—इस पंक्ति का आशय यह है कि अनन्त (केवल) ज्ञान और अनन्त (केवल) दर्शन के धनी; शीलगुण, विनय,तप और संयम पर पूर्ण आधिपत्य रखने वाले, मार्गदर्शक,विश्व के समस्त प्राणियों के प्रति वात्सल्यमूर्ति, त्रिलोकपूज्य,जिनचन्द्र तीर्थंकरों ने इस भगवती अहिंसा के स्वरूप और कार्य-प्रयोग को अपने केवलज्ञान और केवलदर्शन से भलीभांति देखा और जाना है। जितने भी तीर्थकर हुए हैं, उन्होंने राग और द्वेष का निवारण किया है, क्रोधादि चारों कषायों एवं काम, मोह, ममत्व आदि से रहित हुए हैं, विश्व के सभी प्राणियों के एकान्तहितकर्ता-वत्सल बने हैं, शील, विनय, तप और संयम की आराधना की है। अहिंसा की साधना करने से ही उनकी ये सब साधनाएँ सफल हुई हैं । अहिंसा की पूर्ण साधना के लिए इन सबकी साधना उन्हें अनिवार्य रूप से करनी पड़ी है। क्योंकि राग, द्वेष, कषाय, असंयम, काम, मोह, ममत्व आदि को छोड़े बिना अहिंसा की सम्यकप से साधना नहीं हो सकती और अहिंसा की साधना हुए बिना उन्हें अनन्तज्ञान-दर्शन, तीर्थंकरत्व
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy