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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र 'बावत्तरिकलाकुसला पंडियपुरिसा अपंडिया चेव ।
सब्वकलाणं पवरं जे धम्मकलं न जाणंति ॥' जो पुरुष समस्त कलाओं में श्रेष्ठ धर्मकला को नहीं जानते; वे ७२ कलाओं में निपुण-विशेष पण्डित भी अपण्डित ही हैं।
अतः अहिंसा धर्म की कला यानी बुद्धिसाफल्य का कारण होने से अहिंसा को बुद्धि कहा है।
अथवा अहिंसा का यथाविधि दृढ़ता से पालन करने से द्वादशांगी श्रुतज्ञान, देशावधिज्ञान, परमावधिज्ञान, सर्वावधिज्ञान, मनःपर्याय और केवलज्ञान आदि प्राप्त होते हैं। और ज्ञान बुद्धि का ही कार्य है। इसलिए पूर्वोक्त ज्ञानरूप बुद्धि का कारण होने से अहिंसा को बुद्धि कहना उचित ही है।
धिती--चित्त की दृढता को धृति कहते हैं। अहिंसा का पालन भी चित्त की दृढ़ता के बिना हो नहीं सकता। इसलिए धृति अहिंसा का कारण होने से कारण में कार्य का उपचार करके धृति को अहिंसा का पर्यायवाची शब्द कहा है।
समिद्धी-मानसिक और आत्मिक आनन्द को समृद्धि कहते हैं । अहिंसा के पालन करने से मानसिक और आत्मिक दोनों प्रकार के आनन्द की उपलब्धि होती है । इसलिए समृद्धि-आनन्द का कारण होने से अहिंसा को समृद्धि कहा गया हैं । अथवा अहिंसाधर्म के पालन से आत्मिकसमृद्धि (आत्मा में दृढ़ता, क्षमता, तितिक्षा, . सहिष्णुता, दया, सेवा, वत्सलता आदि सद्गुणों की समृद्धि-पूजी) बढ़ जाती है। . इसलिए समृद्धिद्धिनी होने से अहिंसा को समृद्धि भी कहा गया है।
रिद्धी-ऋद्धि लक्ष्मी को कहते हैं। अहिंसा के पालन से आत्मिक और भौतिक दोनों प्रकार की ऋद्धि-सम्पदा बढ़ जाती है । अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान आदि आत्मिक लक्ष्मी और धनसम्पत्ति आदि भौतिक लक्ष्मी अहिंसा की दृढ़ता से मिलती है। परिवार और समाज के सभी सदस्यों में परस्पर मेलजोल और संप होता है तो वहाँ प्रेमपूर्वक दिलचस्पी से मिल जुल कर व्यवसाय आदि करने से लक्ष्मी बढ़ती देखी गई है। कहावत भी है जहां संप तहाँ सपत् नाना ।' और ऐसा प्रेमभाव या संप अहिंसा का ही एक अंग है। इस दृष्टि से अहिंसा ऋद्धिलक्ष्मी का कारण होने से इसे ऋद्धि कहा गया है ।
विद्धी-आत्मिक गुणों या पुण्यप्रकृतियों का बढ़ना वृद्धि है। अहिंसा से तप, संयम, शील आदि आत्मगुण बढ़ते ही हैं, शुभ परिणति से पुण्य भी बढ़ता है। इसलिए वृद्धि का कारण होने से अहिंसा को वृद्धि कहा है।
ठिती-अहिंसा सादि और अन्तरहित मोक्ष में आत्मा की स्थिति कराती है, इसलिए इसे स्थिति कहा है।