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________________ ५२२ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र १० प्राणों में से किसी भी प्राण का प्रमाद या कषाय के वश होकर घात न करना और रक्षा, सेवा, दया या करुणा आदि करना द्रव्यअहिंसा है तथा आत्मा के परिणामों तथा गुणों का घात न करना, बल्कि शुद्ध परिणामों तथा गुणों में वृद्धि करना भावअहिंसा है। इन दोनों के भी दो-दो भेद और होते हैं—स्वद्रव्य-अहिंसा, परद्रव्यअहिंसा,स्वभावअहिंसा और परभाव-अहिंसा । क्रोधादि के वशीभूत हो कर अपने शरीर, इन्द्रिय आदि का किसी प्रकार का घात न करना स्वद्रव्यअहिंसा है और क्रोधादिवश दूसरे के प्राणों का नाश न करना परद्रव्यअहिंसा है। इसी प्रकार अपने परिणामों को राग-द्वेष-क्रोधादि कषायवश मलिन न करना, विकार, वासना, अर्थात् आश्रव आदि में या आर्त्तरौद्रध्यान में न ले जाना तथा स्वभाव में या निजगुणों में ही रमण करना स्वभावअहिंसा है। तथा रागद्वेषादिवश दूसरे प्राणियों के आत्म-स्वभावों या शान्ति आदि निजगुणों को हानि न पहुंचाना, अपितु उनके शुभ परिणामों में वृद्धि करना परभावअहिंसा है। . कोई भी साधु साध्वी या सद्गृहस्थ श्रावक-श्राविका - जब आमरण अनशन (संथारा) या तप करते हैं, उस समय वे प्रमाद या क्रोधादिकषायवश नहीं करते, बल्कि शुद्ध भावों में बहते हुए, चढ़ते परिणामों से, स्वतःप्रेरणा से करते हैं । इसलिए अनशन तप आदि से शरीर-इन्द्रियों को कष्ट देना, वास्तव में कष्ट देना नहीं है । अतः वहाँ द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से अहिंसा है,हिंसा नहीं है । अनशनादि व्रत या तप करने वाले आत्मा में शान्ति और संतोष-सुख का अनुभव करते हैं । अतः उनके . मन में कोई डर या क्रोधादि के कोई चिह्न दृष्टिगोचर नहीं होते। सदेवमण्यासुरस्स लोगस्स दीवो- अहिंसा देवों, मनुष्यों और असुरों सहित समग्र लोक के लिए आश्रय देने वाला द्वीप है। जैसे द्वीप अगाध समुद्र में डूबते हुए और मगरमच्छ, घड़ियाल आदि हिंसक जलचर जन्तुओं से पीड़ित, बड़ी-बड़ी लहरों के थपेड़ों से आहत व्यक्तियों को सुरक्षित स्थान दे देता है, वैसे ही संसारसमुद्र में डूबते हए, सैंकड़ों प्रकार के दुःखों से पीड़ित और संयोगवियोगरूपी लहरों के थपेड़ों से आहत प्राणियों के लिए सुरक्षित स्थान देने वाली एक मात्र अहिंसा ही है। अथवा जैसे घोर अन्धकार में मार्ग में स्थित सर्प और चोर आदि को अपने प्रकाश से दिखा कर दीपक यात्री को सावधान कर देता है, वैसे ही अहिंसा दीपक की तरह अपने प्रकाश से अज्ञानान्धकार में निमग्न जीवनयात्रियों को हेयोपादेय का ज्ञान करा कर सावधान-जागृत कर देती है । इसलिए अहिंसा दीप भी है। 'ताणं सरणं गती पइट्ठा'-अहिंसा संसार के दुःखों से प्राणियों की रक्षा करती है, १ दश प्राणों का वर्णन प्रथम आश्रवद्वार में किया जा चुका है। -संपादक
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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