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संवरद्वार-दिग्दर्शन
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इनका सेवन करते हैं । 'सप्पुरिसतोरियाई' इस पाठ के अनुसार अर्थ होता हैसत्पुरुष ही इन संवरद्वारों का पूर्ण अवगाहन कर पाते हैं । जो व्यक्ति नदी के किनारे खड़ा रह कर नदी की लहरें गिनता रहता है या नदी में तैरने के मनसूबे बांधता रहता है, वह नदी में तैरने का आनन्द नहीं पाता । इसी प्रकार जो इन संवरद्वारों का निरूपण सुन कर केवल विचार करता रहता है, इनके पालन के लिए तैयार नहीं होता, सिर्फ संवरों का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह संवरों से होने वाले आनन्द का लाभ नहीं ले पाता । अतः उपर्युक्त विवेकी सत्पुरुष ही संवरद्वार का किनारा पाते हैं।
निव्वाणगमणमग्ग-पणायकाई-आज धर्मों की हजारों दूकानें लगी हुई हैं । जहाँ भी जाओ, तपाक से कहा जायगा—'हमारे भगवान या गुरु की शरण में आ जाओ या हमारा धर्म-संप्रदाय स्वीकार कर लो ; तुम्हें मुक्ति मिल जायगी, ईश्वर के दर्शन हो जायेंगे या स्वर्ग मिल जायगा।' भोलाभाला मानव ऐसे ढोंगियों के चक्कर में फंस कर आत्मसमर्पण कर देता है। वह निर्वाण या मोक्ष के या स्वर्ग के वास्तविक रहस्य को न पाने के कारण दम्भियों के जाल में फंस जाता है। इससे उसे न तो निर्वाण मिल पाता है और न स्वर्ग ही। ऐसे लोगों को लक्ष्य में रख कर शास्त्रकार कहते हैं-'ये संवरद्वार निर्वाणगमन के लिए रास्ते हैं। स्वर्ग में ले जाने वाले हैं।' रास्ता साफ बना हुआ हो तो यात्री को कहीं भटकने या लुटने का डर नहीं रहता। संवरद्वार ऐसे साफ रास्ते हैं, जिन पर चल कर हजारों महान् आत्माओं ने निर्वाण पाया है और पायेंगे । वास्तव में, निर्वाण आत्मा की पूर्ण शुद्ध अवस्था का नाम है। जब आत्मा पर से समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं, कर्मबन्ध का कोई कारण भी नहीं रह पाता, आत्मा ज्ञानावरणीय आदि सभी प्रकार के कर्मों (चाहे वे द्रव्यकर्म हों, चाहे भावकर्म हों और चाहे नोकर्म) से सर्वथा रहित हो जाती है, तभी वह पूर्ण शुद्ध होती है । तब उसमें अनन्तज्ञान, अनन्तसुख आदि गुण स्वतः प्रगट हो जाते हैं । जब तक समस्त कर्मों का क्षय नहीं हो जाता, तब तक ये संवर स्वर्ग दिलाने वाले हैं, यानी संवरों की आराधना से दुर्गति में जाने का कोई खतरा नहीं है ; और न ही कोई धोखेबाजी या झूठे सब्जबाग का दिखावा है । अथवा कहीं 'सग्गपयाणकाई पाठ भी मिलता है, उस दृष्टि से इसका अर्थ यह है कि ये संवरद्वार स्वर्ग में पहुंचाने वाले हैं अथवा स्वर्ग पहुंचाने के लिए यान-जहाज के समान हैं।
इन्हें संवरद्वार क्यों कहा गया ?–अब प्रश्न होता है कि इन अध्ययनों को केवल संवर कहने से ही काम चल जाता ; द्वार' शब्द इनके आगे लगाने के पीछे क्या रहस्य है ? इसका समाधान यह है कि अगर केवल 'संवर' ही कहा जाता तो पूर्णतया स्पष्ट अर्थबोध नहीं होता। केवल इतना ही बोध हो पाता कि, यह संवर का
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