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________________ ५१४ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र लक्षण है और इतने उसके भेद हैं । लेकिन संवर किस तरीके से प्राप्त हो सकता है ? जीवन में संवर को कैसे उतारा जा सकता हैं ? संवर को जीवन में रमाने के लिए क्या-क्या उपाय हैं ? इत्यादि बातों का समाधान नहीं हो पाता। इसलिए प्रत्येक संवर के आगे द्वारशब्द लगा कर यह द्योतित किया गया है कि मकान में प्रवेश करने के द्वार की तरह ये भी संवर के द्वार हैं-उपाय हैं। द्वार हों तो किसी भी भवन में प्रवेश करने में जैसे आसानी रहती है, वैसे ही पांचों संवरों के भव्य भवनों में सुगमता से प्रवेश करने के लिए ये अध्ययन द्वार के समान हैं। संवर के भेद-शास्त्रकार की दृष्टि से संवर के यहाँ ५ भेद ' बताए गए हैं । यह गाथा इसके लिए प्रस्तुत है "पढ़म होइ अहिंसा, बितियं सच्चवयणंति पन्नत्तं । दत्तमणुन्नायं संवरो य बंभचेरमपरिग्गहत्तं च ॥" अर्थात्-पहला संवर अहिंसा है, दूसरा सत्यवचन है, तीसरा अदत्त का विपक्षी दत्त-दी हुई तथा अनुज्ञात-उसके स्वामी, जीव, तीर्थंकर या गुरु द्वारा अनुमत वस्तु का ग्रहण करना, और चौथा ब्रह्मचर्य संवर है, तथा पांचवां संवर अपरिग्रहत्व–परिग्रहत्याग है। इन सबका विशेष अर्थ तथा विस्तार से वर्णन आगे किया जाएगा। सर्वप्रथम अहिंसा-संवर ही क्यों ?—प्रश्न होता है कि इन ५ संवरों में सर्वप्रथम अहिंसा को ही क्यों माना गया ? सत्य को क्यों नहीं ? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं--'तत्थ पढमं अहिंसा तसथावरसन्वभूयखेमकरी' यानी त्रस-स्थावर रूप समस्त प्राणियों का क्षेम-कुशल करने वाली होने से अहिंसा को प्रथम स्थान दिया गया है। . दूसरी बात यह है समस्त प्राणी अपने पर होने वाले प्रहार, मारपीट या अन्य हिंसाजनक घटनाओं से तथा अपनी हत्या से घबराते हैं ; इसलिए हिंसा का उन पर असर सीधा पड़ता है । असत्य, चोरी, परिग्रह या अब्रह्मसेवन का सीधा असर प्रायः नहीं पड़ता। इन चारों में से किसी का सीधा असर पड़ता है तो मनुष्य पर ही, तिर्यञ्चजाति पर तो कोई खास असर ही नहीं होता, इन सबका । इसलिए हिंसा की प्रतिपक्षी अहिंसा को विश्व में प्राणिमात्र चाहते हैं । हिंसा से संतप्त प्राणिगण मानो १ तत्त्वार्थसूत्र और नवतत्त्व में संवर के ५७ भेद बताये हैं। वे इस प्रकार हैं ५ समिति, ३ गुप्ति, १० यतिधर्म, १२ अनुप्रेक्षा, २२ परिषहजय और ५ चारित्र। इनका विस्तृत वर्णन उन्हीं ग्रन्थों से जान लें । यहाँ संवर के ५ भेद ही विवक्षित -सम्पादक
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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