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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
नहीं ? कई बार तो उन्हें अपने जातीय, राष्ट्रीय, सामाजिक या पारिपाश्विक संस्कार या वातावरण भी ऐसे गलत मिलते हैं, जिनसे उलटे उपाय अपना कर अपने दुःखों में वृद्धि कर लेते हैं । अतः शास्त्रकार ऐसे दिङ्मूढ़ बने हुए लोगों को आश्वासन के स्वर कहते हैं कि 'ये संवरद्वार सैकड़ों दुःखों से मुक्ति दिलाने वालेँ हैं । इन्हें अपनाओ ।' सुहसयपवत्तणकाई—– संसारी जीव अज्ञान और मोह के वशीभूत हो कर वैषयिक सुखों को ही सुख मान कर विविध इन्द्रियविषयों तथा उनकी पुष्टि के लिए खाने-पीने-पहनने के साधनों, भौतिक पदार्थों आदि को अपनाता है, परन्तु वें सब जरा-सी देर के लिए सुख की झलक दिखा कर नष्ट हो जाते हैं । तब फिर वही हातोबा मचती है । खराब, अनचाहा पदार्थ मिला तो दुःख, इष्ट पदार्थ का वियोग हो गया तो दुःख, इष्ट पदार्थ को किसी दूसरे ने अपने कब्जे में ले लिया तो उसकी चिन्ता और दुःख ! इसलिए उन सब सुखाभासों से दुःख पाते हुए, लोगों से शास्त्रकार का संकेत है— 'ये ५ संवरद्वार ही एकमात्र ऐसे हैं, जो वस्तुनिष्ठ या विषयनिष्ठ दुःखपरिणामी -सुखाभासों से छुटकारा दिला कर आत्मनिष्ठ स्वाधीन शाश्वत सुखों में रमण करा देते हैं ।
कापुरिसदुरुत्तराई— संसार में बहुत से लोग ऐसे हैं, जो सस्ता नुस्खा खोजते रहते हैं । जहाँ 'हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा हो जाय; इस मनोवृत्ति के लोग होते हैं, वहाँ कुछ धूर्त धर्मध्वजी भी उन्हें वैसे ही मिल जाते हैं, जो त्याग, वैराग्य, संयम, तप और नियम को ढोंग और दिखावा बता कर उन्हें इन्द्रियसुखों के दलदल में फंसा कर अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं । वे उन्हें इन्द्रियों के वैषयिक सुख और ऐश आराम की जिंदगी बिता कर स्वर्ग और मोक्ष मिल जाने या अमुक सम्प्रदाय, गुरु, या अवतार को मान लेने या अमुक ( भस्म रमाने, जटा बढ़ाने आदि) क्रिया करने से भगवान् के दर्शन या मुक्ति की प्राप्ति के सब्जबाग दिखाते हैं । इस प्रकार तप, संयम, नियम, त्याग, वैराग्य आदि को कष्टकर समझ कर कायर बना हुआ और सस्ता नुस्खा खोजने वाला मनुष्य भोगपरायणता के ऐसे रास्ते को अपना लेता है । किन्तु आखिर वह धोखा खाता है, फिर पछताता है । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं, कि इन्द्रियों के गुलाम कायर लोग इन संवरद्वारों के रहस्य को नहीं पा सकते । वे इन्हें ढोंग समझ कर ठुकरा देते हैं और सच्चे सुख से वंचित ही रहते हैं । मतलब यह है कि इन संवरद्वारों के आराधन में कायर लोगों की गुजर नहीं होती ।
सप्पुरिसनिसेवियाई - हिताहित, कर्तव्याकर्तव्य, हानिलाभ और जड़चेतन का जिनमें विवेक जागृत हो गया है और जो इन्द्रियदास और कष्टकातर न बन कर आत्मिक सुख को पाने के लिए कटिबद्ध हैं, ऐसे सत्पुरुष ही इन संवरद्वारों का सेवन - पालन करते हैं । दुराचारी, कायर, हिंसक आदि दुर्जन तो इन्हें छूते भी नहीं; सज्जन ही