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________________ संवरद्वार : दिग्दर्शन ने भी बताया है या आप अपने मन से हांक रहे हैं ?" यदि उस आत्मिक रोगी की शंका का समाधान हो जाता है, तो वह बेखटके उस इलाज को अपना कर शीघ्र स्वस्थ हो जाता है । इसी दृष्टि से शास्त्रकार ने बताया है कि ये संवरद्वार कोरी गप्प नहीं है, या मैं ही सिर्फ नहीं बता रहा हूँ, परन्तु इस अनादि-अनन्त संसार में अनन्तकाल से प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में जो भी तीर्थंकर हुए हैं, उन सबने सांसारिक प्राणियों के आत्मिक रोगों को मिटाने के लिए समानरूप से इन संवरों की ही शिक्षा दी है, इन्हीं के सेवन का आदेश-निर्देश दिया है। .. कम्मरयविदारगाइ-यह बात निश्चित है और विवेकी जीव अनुभव भी करते हैं कि जो जैसा शुभाशुभ कर्म करेगा, उसे उसी रूप में अपने उन कर्मों का फल भोगना पड़ेगा, भोगना पड़ रहा है और भूतकाल में भी भोगना पड़ा था। इसलिए प्रत्येक मानव इन कर्मों से घबराता है और जो भी गुरु या उपदेशक उसके निकटसम्पर्क में होते हैं, उनसे कर्मनिवारण का उपाय पूछता फिरता है । परन्तु वे खुद किसी न किसी दुर्गुण में फंसे होते हैं तो ऊटपटांग उपाय ही बताते हैं, उलटे लटकने, चारों ओर आग जलाकर तपने आदि के उलटे मार्ग बता देते हैं, तो उनसे उनके कर्म कटने के बजाय और नये बंधते जाते हैं; वे बेचारे किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर मन मसोस कर रह जाते हैं । उन्हीं जीवों को लक्ष्य करके शास्त्रकार कहते हैं—ये संवरद्वार नये कर्मों को बढ़ाने के बजाय आते हुओं रोक देते हैं और पुराने कर्मों को क्षीण करने में सहायक होते हैं ।। __ भवसयविणासणकाई-संसार में जन्ममरण का भय सबके पीछे लगा हुआ है । कठोर से कठोर हृदय वाले को भी जन्ममरण से डर लगता है। कई लोग मनुष्यजन्म पा कर भी पूर्वकृत अशुभकर्मवश अनेक कष्टों का सामना करने से ऊब जाते हैं और सोचते हैं- "जीवन का अन्त कर डालें।" आत्महत्या करने से शान्ति और सुख हो जायगा , ऐसी भ्रान्ति के शिकार बन कर वे जन्म-मरण का चक्र घटाने के बजाय बढ़ा लेते हैं । कई बार उन्हें झंपापात (पर्वत से नीचे कूदना) और जलसमाधि ले लेने आदि के अनर्थक उपाय जन्ममरण के अन्त के लिए बता देते हैं ; या 'शरीर के भस्म होते ही सब यहीं भस्म हो जायगा' इस प्रकार से विपरीत मार्गदर्शन दे कर गुमराह कर देते हैं। इन सबको लक्ष्य में रख कर शास्त्रकार कहते हैं—संवरद्वार ही एकमात्र सैकड़ों भवों (जन्ममरणों के चक्रों) को तोड़ने में समर्थ है, अन्य कोई उपाय यथार्थ नहीं है, उलटे ऐसे उपायों से जन्ममरण का चक्र बढ़ जायगा। दुहसयविमोयणकाई-संसार में अधिकांश प्राणी अज्ञान, मोह, अविद्या और मिथ्यादर्शन के कारण नाना दुःख पाते हैं। वे मोहमूढ़ हो कर समझ ही नहीं पाते कि हमें ये दुःख क्यों भोगने पड़ते हैं और इन दुःखों का अन्त भी हो सकता है या
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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