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________________ ५१० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र और संयम इन दोनों का क्षय नहीं होता । यानी संवर में तप और संयम की धारा सतत प्रवाहित रहती है । सीलगुणवरव्वयाई सच्चज्जवव्वयाई – संसारी प्राणी सुख-शान्ति के कारण समझ कर कामसेवन करते हैं और अनेक दुर्गुणों को अपनाते हैं, लेकिन ज्यों-ज्यों जीव कामवासना से प्रेरित होकर अब्रह्मसेवन करता है या दुर्गुणों को अपनाता है, त्यों-त्यों अनेक शारीरिक और मानसिक रोग उसे आ घेरते हैं, शरीर आधि-व्याधिउपाधि से ग्रस्त हो जाता है, तब उसे यदि बताया जाए कि तुम संवरों को अपना लो तो वह 'दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता हैं, उक्त कहावत के अनुसार शंका करने लगेगा कि कहीं इन संवर द्वारों में भी वही मौजशौक, विषयवासना सेवन के खेल, रागरंग, छलकपट, धोखे बाजी, झूठफरेब आदि तो नहीं हैं ? अतः उसे शास्त्रकार विश्वास दिलाते हैं कि ' घबराओ मत ! इन संवर द्वारों में ये सब कामोत्तेजक या दुर्गुणवर्द्धक बातें नहीं हैं, इनमें तो शील (सदाचार) है, श्रेष्ठ गुण हैं, सत्यता है, सरलता है । इन संवरद्वारों के सेवन से सभी प्रकार के शारीरिक मानसिक रोग मिट जाएँगे । झूठफरेब, धोखेबाजी, ठगी या कपटव्यवहार जीवन में फटकेंगे भी नहीं, जिनसे तुम्हें डरना पड़े। बल्कि शील, सत्य और सरलता से जीवन चमक उठेगा जीवन में शान्ति और सुख का सागर लहराने लगेगा । नरगतिरियमणुयदेव गतिविवज्जकाई – प्राणी अनादिकाल से नरकादि चारों गतियों में भ्रमण कर रहा है | बार-बार विभिन्न गतियों में भटकते-भटकते और वहाँ जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि के तथा वध-बन्धन आदि के विविध कष्ट सहते-सहते ऊबा हुआ प्राणी कोई न कोई सहारा ढूंढता है, या कोई निवारक उपाय खोजता है । ऐसे प्राणियों से शास्त्रकार कहते हैं कि संवरद्वार ऐसे हैं, जिन्हें अपना लेने पर और दृढ़ता से इनकी आराधना - साधना करने पर इन चारों गतियों में भ्रमण करने का कोई खतरा नहीं रहता । ये संवर ऐसे हैं कि इन्हें अपना लेने पर चारों गतियों में भ्रमण का रास्ता बंद हो जाता है । सव्वजिणसासणगाई – जब कोई रोग दुःसाध्य हो जाता है तो रोगी घबरा कर अनेक वैद्यों और चिकित्सकों के पास जाता है । यदि वे अपने चिकित्साशास्त्र के आचार्यों द्वारा बताए हुए नुस्खे लिख कर रोगी को देते हैं, तब तो रोगी को विश्वास बैठ जाता है । परन्तु अगर वैद्य अपना मनमाना नुस्खा लिख कर दे देता है या उटपटांग दवा लिख कर रोगी को टरका देता है तो उसे फायदा भी नहीं होता और रोगी की श्रद्धा उस वैद्य पर से हट जाती है । यही बात आध्यात्मिक रोगीभवभ्रमण के रोगी के लिए है । जब कोई अप्रसिद्ध या मामूली साधु या आचार्य उसे अमुक-अमुक नियम पालने की बातें करते हैं तो वह शंकाशील हो कर पूछता है – “आत्मिक रोग का यह इलाज किसी प्राचीन महापुरुष
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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