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संवरद्वार : दिग्दर्शन
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हैं । अणुव्रतों में हिंसा आदि से सर्वथा निवृत्ति - विरति नहीं होती है, जबकि महाव्रतों में हिंसा आदि आश्रवों का मन, वचन और कायरूप तीन योगों से तथा कृत-कारितअनुमोदन रूप तीन करणों से त्याग करना होता है । महाव्रत केवल साधु-मुनियों द्वारा पालनीय होते हैं । परन्तु यहाँ केवल महाव्रतों को ही एकान्तरूप से संवर नहीं माना, अपितु उन पांचों संवरों का माहात्म्य बताने के लिए यह बता दिया है कि वे महाव्रतरूप भी होते हैं । अगर शास्त्रकार संवरों को एकान्तरूप से महाव्रतरूप ही बताते, तब तो ये संवर केवल साधुओं के ही काम के होते; सारा विश्व इनसे कोई लाभ नहीं उठा सकता । परन्तु शास्त्रकार ने 'लोयहियसव्वयाइ' आदि विशेषणों द्वारा इनसे सारे लोक के हित का दावा किया है । इसलिए इन संवरों को सार्वजनीन समझना चाहिए |
लोकहि सव्वाई ये संवर संसार में समस्त हितों के प्रदाता हैं । संसारी वहित की प्राप्ति और अहित से निवृत्ति के लिए प्रयत्नशील दिखाई देते हैं । लेकिन विपरीत उपायों का सहारा लेने से विफलमनोरथ होकर वे हताश हो जाते हैं । परन्तु शास्त्रकार इन संवरद्वारों को एकान्त लोकहितप्रदायक बता कर संवर-ग्रहण की ओर अंगुलिनिर्देश कर रहे हैं।
अथवा यदि 'लोए धिइअव्वयाई' पाठ मानें तो अर्थ होता है— ये संवरद्वार लोक में शारीरिक और मानसिक दुःखों से सन्तप्त जीवों को धैर्य बंधाने और आश्वासन देने वाले व्रत हैं । वास्तव में अहिंसा आदि व्रतों के धारण करने से व्यक्ति को सुखशान्ति की अनुभूति अवश्य ही होती है, व्याकुलता कम हो जाती है, आश्रवों से छुटकारा पाते ही मनुष्य निश्चिन्त और निर्द्वन्द्व हो जाता है ।
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सुयसागरदेसिया - सांसारिक प्राणी जब शारीरिक मानसिक पीड़ाओं से छटपटाते हैं, उस समय यदि कोई साधारण आदमी जाकर उन्हें किसी मामूली पुस्तक की बातें पढ़कर सुना दे तो उससे उन्हें संतोष नहीं होता । परन्तु उस समय अगर उन्हें यह विश्वास दिलाया जाय कि ये बातें मैं अपने मन की कपोल कल्पित नहीं बता रहा हूँ, अपितु आगमों के गहरे ज्ञान समुद्र में उपदिष्ट ही यह सब बता रहा हूँ, तो उन्हें झट विश्वास जम जाता है और वे संवर को अपनाने के लिए तैयार हो जाते हैं । इसी दृष्टिकोण से कहा गया है कि ये संवरद्वार श्रुतसमुद्र -- शास्त्रसागर में सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट हैं ।
तव - संजमव्वयाई . - संसार के अधिकांश प्राणी कर्मों के रोग से पीड़ित हैं । कर्मों के रोग को मिटाने के लिए रामबाण दवा तप और संयम है । तप और संयम की दिव्य औषधि का सेवन करने से ही कर्मों का उच्छेद होगा । इसलिए संवर द्वारों को तप-संयमरूप व्रत बता कर उस संतापरूप रोग को मिटाने के लिए संकेत किया है, शान्ति प्राप्त करने का आश्वासन दिया है । अथवा इन संवरद्वारों में तप