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________________ ५०६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र 1 I 1 घबराए हुए जीवों को धैर्य देने वाले ये व्रत हैं । ये व्रत तप-संयमरूप हैं, अथवा इनमें तप और संयम का क्षय नहीं होता । ये शील और विनयादि गुणों के कारण श्रेष्ठ हैं अथवा उनमें शील और श्रेष्ठ गुणों का समूह रहता है । इनमें सत्य और आर्जव (सरलता ) प्रधान हैं । ये नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति का निवारण करने वाले हैं । इनकी शिक्षा समस्त तीर्थंकरों ने दी है । ये कर्मरूपी रज का क्षय करने वाले हैं । ये सैकड़ों भवों - जन्ममरणों का नाश करने वाले हैं । ये सैकड़ों दुःखों से छुटकारा दिलाने वाले और सैकड़ों सुखों की प्राप्ति कराने वाले हैं । कायर पुरुषों के लिए इन पर अन्त तक निष्ठापूर्व टिकना कठिन है । ये सत्पुरुषों के द्वारा सेवित हैं अथवा सत्पुरुष इनका सेवन करके पार उतर गए हैं । ये निर्वाणगमन के लिए मार्गरूप हैं, और स्वर्ग में ले जाने वाले हैं । ऐसे पांच संवरद्वार का कथन भगवान महावीर स्वामी ने किया है । 1 व्याख्या श्री प्रश्नव्याकरणसूत्र का प्रथम खण्ड — आश्रवद्वार ( अधर्मद्वार) समाप्त हो चुका । इसलिए अब आश्रव के प्रतिपक्षी संवरों का वर्णन करना जरूरी था । चूं कि प्रश्नव्याकरणसूत्र विश्व के प्राणियों के जीवन से सम्बन्धित मूलभूत प्रश्नों की व्याख्या और विश्लेषण करने के लिए ही भगवान् महावीर स्वामी द्वारा प्ररूपित है । जीवन के मूलभूत और मुख्य प्रश्न यही हैं कि मनुष्य किन-किन कारणों से कैसे-कैसे दुःख पाता है । उसके लिए उसे कहाँ-कहाँ भटकना पड़ता है ? उसके पश्चात् वह इन दुःखों के कारणों से कैसे और किस उपाय से छुटकारा पा सकता है ? उसके लिए उसे कौन-सी आराधना - साधना करना जरूरी है ? अथवा किन-किन बातों को दृढ़तापूर्वक अपनाना आवश्यक है ? प्राणिजीवन के बन्धनसम्बन्धी पूर्व प्रश्नों के उत्तर में आश्रवद्वार का वर्णन प्रस्तुत किया गया और अब मुक्तिसम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर में संवरद्वार प्रस्तुत कर रहे हैं । इसी हेतु से पांचों आश्रवद्वारों - अधर्म द्वारों का निरूपण और विश्लेषण कर चुकने के पश्चात् श्री सुधर्मास्वामी अपने प्रधान शिष्य श्री जम्बूस्वामी को सम्बोधित करके कह रहे हैं—‘जम्बू ! एत्तो संवरदाराई पंच वोच्छामि आणुपुव्वीए ।' अर्थात् यहाँ से अब आश्रवों के प्रतिपक्षी पांच संवरद्वारों का मैं क्रमशः तुम्हारे सामने निरूपण करूंगा ।' प्रश्न होता है कि इन संवरद्वारों का वर्णन पहले भी किसी ने किया है, या श्री
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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