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________________ संवरद्वार : दिग्दर्शन ५०५ सम्पूर्ण हित को देने वाले हैं, अथवा (लोके धिइअव्वयाई) जीव लोक में धैर्य-चित्त को आश्वासन देने वाले व्रत हैं। (सुयसागरदेसियाई) ये आगमरूपी समुद्र में उप दिष्ट हैं (तवसंजमव्वयाई) ये तप और संयमरूप व्रत हैं अथवा इनमें तप और संयम का व्यय-क्षय नहीं होता है; (सील गुणवरव्वयाइं) शील और विनयादि गुणों से श्रेष्ठ व्रत हैं अथवा इनमें शील और श्रेष्ठ गुणों का वज–समूह निहित है। (सच्चज्जवव्वयाई) सत्य और आर्जव-इन व्रतों में प्रधान हैं; अथवा सत्य और आर्जव का इनमें व्यय - नाश नहीं होता; (नरगतिरियमणुयदेवगतिविवज्जकाई) नरकगति, तिर्यचगति, मनुष्यगति और देवगति को दूर हटाने वाले हैं, (सव्वजिणसासणगाई) समस्त जिनेन्द्रों द्वारा शासित-प्रतिपादित हैं; (कम्मरयविदारगाई) कर्मरूपी रज का विदारण-क्षय करने वाले हैं, (भवसयविणासणकाई) सैकड़ों भवों--जन्मों का विनाश-अन्त करने वाले हैं, (दुहसयविमोयणकाई) सैकड़ों दुःखों से छुड़ाने वाले हैं, (सुहसयपवत्तणकाई) सैकड़ों सुखों में प्रवृत्त करने वाले हैं, . (कापुरिसदुरुत्तराई) कायर पुरुषों के लिए दुस्तर हैं,भीर लोग बड़ी मुश्किल से इन पर तिष्ठा लाते हैं, (सप्पुरिसनिसेवियाई) सत्पुरुषों ने इनका सेवन करके किनारा पा लिया है, (निव्वाणगमणमग्ग-(सग्ग) पणायकाई) ये निर्वाणगमन के लिए मार्ग रूप हैं तथा प्राणियों को स्वर्ग पहुंचाने वाले हैं। (पंच) ऐसे पांच (संवरदाराई) संवर द्वार (भगवया) भगवान् महावीर ने (कहियाणि उ) कहे हैं। मूलार्थ - श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैंहे आयुष्मन् जम्बू ! पांचों ही आश्रवद्वारों का वर्णन करने के पश्चात् समस्त दुःखों से छुटकारा दिलाने के लिए पांच संवरद्वार जिस प्रकार भगवान् महावीर स्वामी ने कहे हैं, उसी प्रकार मैं तुम्हें अनुक्रम से कहूँगा ॥१॥ पहला संवरद्वार अहिंसा है। दूसरा संवरद्वार सत्यवचन है, तीसरा संवरद्वार दत्त और अनुज्ञात के ग्रहण रूप है,चौथा ब्रह्मचर्य नामक संवरद्वार है और पांचवां अपरिग्रहत्व-परिग्रहत्याग नामक संवरद्वार है ॥२॥ इन पांचों में से पहला संवरद्वार अहिंसा है, जो त्रस-स्थावर सम्पूर्ण प्राणियों का क्षेम-कुशल करने वाली है । पांच भावनाओं सहित उस अहिंसा के थोड़े-से गुणों का संक्षिप्त स्वरूप मैं बताऊंगा ॥३॥ हे सुव्रत-उत्तम व्रताचरणशील ! पहले जिनके नामों का ही केवल उल्लेख किया गया है,जिनका विशेष स्वरूप आगे बताया जायगा; वे ये अहिंसा आदि ५ महाव्रत लोगों के सम्पूर्ण हितों के प्रदाता हैं अथवा लोक में दुःख से
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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