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________________ संवरद्वार : दिग्दर्शन सुधर्मास्वामी स्वयमेव सर्वथा नये रूप में उनका वर्णन कर रहे हैं ? इसके उत्तर में शास्त्र- कार स्वयं कहते हैं-'जह भणियाणि भगवया'। इसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि सुधर्मास्वामी स्वयं ज्ञानी और दृढ़ चारित्रात्मा थे, वे चाहते तो स्वयमेव नये रूप में संवरों का वर्णन कर सकते थे; लेकिन उन्होंने उपर्युक्त वाक्य द्वारा विनयपूर्वक अपनी लघुता प्रगट की है। साथ ही वीतरागप्रभु के प्रति अपनी श्रद्धा और भक्ति का परिचय दिया है। उनके प्रति कृतज्ञता भी प्रदर्शित की है कि 'जैसा भगवान् महावीर ने संवरद्वारों का वर्णन अपने श्रीमुख से फरमाया था, वैसे ही रूप में मैं उनके आशयानुसार अपने शब्दों में उनका वर्णन करूंगा । मैं नये रूप में अपनी ओर से इनका वर्णन नहीं कर रहा हूं। भगवद्वाणी तो समस्त जीवों के संशयों के दूर करने वाली, और सबको हृदयंगम हो सके, ऐसी सर्वभाषामयी थी, वैसी शक्ति तो मुझ में नहीं है; किन्तु उन्हीं भावों को बिना विपर्यास किए, यथातथ्य रूप में मैं कहूंगा। इन शब्दों से श्री सुधर्मास्वामी ने इस शास्त्र की प्रामाणिकता भी व्यक्त कर दी है। . संवरद्वारों का वर्णन क्यों और किसलिए ?–एक शंका यह होती है कि इन संवरों का वर्णन भी क्यों और किसलिए किया गया है ? इसी के समाधानार्थ शास्त्रकार स्वयं कह रहे हैं-'सव्वदुहविमोक्खणट्टाए' अर्थात्—समस्त दुःखों अथवा समस्त प्राणियों को दुःखों से मुक्ति–छुटकारा दिलाने के लिए संवर का निरूपण किया। ____ संवर का अर्थ-जैसे आश्रव जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है, वैसे ही संवर भी जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है । आश्रव का अर्थ हम आश्रवद्वार के प्रारम्भ में कर आए हैं । अत: उसका पिष्टपेषण करना अनावश्यक है। संवर का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ इस प्रकार है 'सद्रियन्ते प्रतिरुध्यन्ते आगन्तुककर्माणि येन सः संवरः' 'संवरणमात्रंप्रतिरोधनमात्र वा सवरः। अर्थात्-'भविष्य में आने वाले कर्म जिस शुद्ध भाव से रुकते हैं या रोके जाते हैं, उसे संवर-भावसंवर कहते हैं और आने वाले पुद्गलरूप कर्मों का रुक जाना द्रव्यसंवर है।' . एक दृष्टान्त द्वारा इसे स्पष्टतया समझाना ठीक होगा—मान लो, समुद्र में अगाध जल भरा है। उसमें एक नौका पड़ी है। परन्तु अधिक समय हो जाने से उस नौका में छेद हो गए हैं। उन छेदों द्वारा जल द्रुतगति से नौका में भर रहा है। उस नौका के छिद्र किसी विवेकी नाविक ने बंद कर दिये । अब नौका के डूबने का कोई खतरा नहीं । अब उसमें पानी घुस नहीं सकेगा। नौका अब सहीसलामत समुद्र को पार करके किनारे पहुंच सकेगी।। इसी प्रकार संसाररूप समुद्र है,उसमें कार्माणवर्गणा के रूप में कर्म रूप अथाह
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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