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________________ ४६० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र शोषण करने, मिलावट करने, नापतौल में गड़बड़ करने तथा असली चीज दिखा कर नकली देने आदि के अनैतिक उपाय अपनाता है, तो समाज और राष्ट्र के लिए - उसका वह व्यापार घातक और द्रोही सिद्ध होगा । इसी प्रकार शास्त्रकार ने परिग्रहलिप्सु लोगों द्वारा सीखे जाने वाले व्यवहारज्ञान, अर्थशास्त्र,राजनीतिशास्त्र, धनुर्वेद आदि शस्त्र विद्याओं के ज्ञान तथा बहुत से यंत्रमंत्र-तंत्र आदि के प्रयोगों एवं वशीकरण आदि योगों के ज्ञान का उल्लेख करके यह ध्वनित किया है कि केवल धन बटोरने के लिए इन सब शास्त्रों का ज्ञान उन लोगों के जीवन को उन्नत बनाने के बजाय दुर्गति में भटकाने वाला होता है । व्यवहार का अर्थ है— विवाद मिटाना । विवादशमन करने के लिए प्राचीनकाल में धाराशास्त्र का अध्ययन किया जाता था; इसे वर्तमान में कानून-कायदों का अध्ययन कहते हैं । इस प्रकार का अध्ययन करके वह वकील बनता है और वकालत करता है । जहाँ तक विवादशमन का प्रश्न है, उसके लिए व्यवहारशास्त्र का अध्ययन करना और उचित पारिश्रमिक ले कर झगड़े मिटाना ठीक है । परन्तु जब कोई केवल धनार्जन करने के उद्देश्य से ही वकालत पढ़ता है और झूठे मुकद्दमे ले कर अपने मुवक्किल • से अधिकाधिक मेहनताना लेने की कोशिश करता है तो वहाँ समाजसेवा नहीं होती, न परिवारपोषण का ही उद्देश्य सिद्ध होता है । इसी प्रकार अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, धनुर्वेदशास्त्र आदि शास्त्रों को पढ़ने का उद्देश्य भी जब एकमात्र पैसे कमाने का ही होता है, तब वह पेशा नीति-धर्म के बदले अनीति और अधर्म बन जाता है । इसी प्रकार यंत्र, मंत्र, तंत्र आदि विद्याएँ, ज्योतिषशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र, चिकित्साशास्त्र एवं अनेक प्रकार के वशीकरण, मारण, सम्मोहन और उच्चाटन आदि का ज्ञान केवल अर्थप्राप्ति के लिए किया जाता है तो उनके प्रयोग में पूर्वोक्त अनर्थ पैदा होते । भोलेभाले लोगों को अपने चंगुल में फंसा कर वह मनमाना पैसा लूटता है और गुलछर्रे उड़ाता है । इसलिए परिग्रहार्थी के हाथों में पड़ कर सब शास्त्रों का दुरुपयोग होगा, उनसे अनेक अनर्थ पैदा होंगे । ये और इसी प्रकार के अन्य सैकड़ों उपाय परिग्रहार्थी अपनाते रहते हैं और आजीवन इसी में ही रचेपचे रहते हैं । परिग्रहलिप्सुओं का स्वभाव - शास्त्रकार आगे चल कर परिग्रहसेवनकर्ताओं के स्वभाव का निरूपण करते हुए कहते हैं— 'परदव्वे अभिज्जा "करेंति कोहमाणमायालो ।' जिनका उद्देश्य सिर्फ पैसे कमाना ही होता है, वे मंदबुद्धि अज्ञजीव अपनी आत्मा के हानिलाभ, कर्तव्य कर्तव्य, नीति अनीति, धर्माधर्म का विचार नहीं करते और जो भी अर्थोत्पादक व्यवसाय हाथ में आता है, उसी में प्रवृत्त हो जाते हैं । कभी
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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