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________________ ४८६ पंचम अध्ययन : परिग्रह-आश्रव ले कर शास्त्रकार ने उक्त षट्कर्म का प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले परिग्रहवादियों की ओर संकेत किया है । वास्तव में जंब मनुष्य परिग्रहलिप्सु — धनार्थी या सुलक्ष्यविहीन बन कर उक्त षट्कर्मों को सीखेगा तो वह इनसे समाज या देश की सेवा या उन्नतिकरने के बदले समाज या देश की कुसेवा या अवनति ही अधिक करेगा । उससे समाज या देश का कोई भला नहीं होगा । शिल्प के दुरुपयोग के बारे में हम पहले लिख आए हैं । राजाओं, बादशाहों या धनिकों की सेवा में रहना कोई बुरा नहीं ; किन्तु अनाचारसेवन करने के लिए सुरा और सुन्दरियों को जुटाने, उनको अश्लील गीत, नृत्य आदि सिखाने, उन्हें दुर्व्यसन सिखाने जैसे कर्म बहुत जघन्य कर्म हैं । बुरे कार्यों के करने पर भी केवल उनकी हां में हाँ मिलाना, जीहजूरी करने के लिए उनके यहाँ नौकरी करना और उनसे ऊँची तनख्वाहें प्राप्त करना, उनकी सेवा नहीं, कुसेवा होगी। इससे उनका जीवन तो दुराचार गड्ढे में पड़ेगा ही, उसका चेप उनके परिवार और समाज को भी लगेगा । यह भी कितना बड़ा पतन का कारण होगा ? इसी तरह युद्धविद्या राष्ट्रसेवा की दृष्टि से सीखना कोई बुरा नहीं, लेकिन उसी युद्धविद्या (अस) का उपयोग जब सेनाएँ रख कर आपस में लड़ाने - भिड़ाने और निर्दोष प्रजा का खून बहाने किया जाता है, तब कितना भयंकर होता है ? इसी प्रकार लेखनविद्या (मंसि) भी राष्ट्रसेवा की दृष्टि से उत्तम है; किन्तु उसी लेखनविद्या का प्रयोग जब अश्लील काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी, लेख आदि लिखने में या हिंसा भड़काने, परस्पर संघर्ष कराने, मारकाट और विद्रोह मचाने के लिए उत्तेजित करने वाला साहित्य लिखने में होता है, और वह होता है, सिर्फ झटपट मालामाल बनने के लिए; तब कितना अनर्थकर होता है ? कितने लोगों का जीवन उस साहित्य से बर्बाद हो जायगा ? कितने लोगों की जिंदगियाँ तहसनहस हो जाएँगी ? इसकी कोई हद नहीं । इसी तरह कृषिविद्या का हाल है । अपनी आजीविका और परिवार के भरणपोषण के लिए कोई गृहस्थ कृषि का धन्धा करे तो वह अल्पारम्भी है, जायज है तथा नैतिकदृष्टि से हेय नहीं है । किन्तु जब इस उद्देश्य को भूल कर कोई व्यक्ति मात्र अपनी भोगवासना की पूर्ति के लिए अनापसनाप व्यक्तिगत खेती करने लगे, बहुत बड़े फार्म में सभी प्रकार की बुरी से बुरी चीजें, यहाँ तक कि तम्बाकू, अफीम आदि भी बोने लगे और उसके द्वारा बहुत मुनाफा कमाने लगे तो कृषिविद्या का वह प्रयोग समाज का शोषण करने वाला बन जाएगा । यही हाल वाणिज्य का है । व्यापार भी एक प्रकार ने परिवारपोषण के साथसाथ देशसेवा का साधन है । परन्तु व्यापारी जब इस लक्ष्य को भूल कर केवल अर्थोपार्जन का लक्ष्य रखता है, तब वह ज्यादा नफा कमाने, दर बढ़ा कर लोगों का
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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