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________________ ४८८ श्री प्रश्नव्याकरण मूत्र जाय । तो ऐसी दशा में वह कला सद्गुणघातक, चरित्र-विनाशक, नीति-धर्म विघातक और सुसंस्कारलोपक बन जाएगी । ऐसी कलाओं से परिग्रहलिप्सु कलाकार तो धनवान बन जाएगा, लेकिन समाज और राष्ट्र का बहुत बड़ा नुकसान होगा। ___ इसी प्रकार कई परिग्रहग्रस्त लोग स्त्रियों के लिए उपयोगी ६४ कलाओंगुणों का प्रशिक्षण लेते हैं, सिर्फ अधिकाधिक परिग्रह धन बटोरने के उद्देश्य से । वे भी समाज और राष्ट्र का पतन करते हैं । अव्वल तो ये ६४ कलाएँ केवल महिलाओं के सीखने लायक होती हैं, परन्तु जब उन्हें कोई पुरुष सीखता है, तो वह नीति-धर्म की मर्यादा का अतिक्रमण करता है। फिर उन महिलोपयोगी कलाओं को सीख कर भी उनसे कई अनर्थ पैदा करने का और राष्ट्र की संस्कृति को मटियामेट करने का प्रयत्न करता है तो वह और बड़ा अपराध करता है। उदाहरणार्थ-कोई परिग्रहलिप्सु व्यक्ति वात्स्यायन के.कामसूत्र में उल्लिखित आलिंगन, चुम्बन आदि कामोत्पादक -रतिजनक कलाओं का प्रशिक्षण लेता है और वर्तमान सिनेमा के अभिनेता या अभिनेत्री की तरह का पार्ट अदा करता है, अश्लील नृत्य, हावभाव, अभिनय आदि करता है तो उनसे उस कलाकार के यहाँ तो धन की वर्षा हो जाएगी, लेकिन समाज या राष्ट्र का कितना नैतिक पतन होगा? कितने युवक कामुक बन कर चरित्रभ्रष्ट होंगे ? बलात्कार या अपहरण के कितने दौर बढ़ेंगे ? इसका अंदाजा लगाना भी कठिन है। यह आकर्षणकारी कला लोकरंजन के साथसाथ मानवजीवन का सत्यानाश कर देगी । इसी दृष्टिकोण से शास्त्रकार ने परिग्रहलिप्सुओं के द्वारा इन कलाओं के सीखने पर व्यंग्य कसा है, इन्हें अधर्मजनक माना है। गृहस्थों की आजीविका के लिए प्राचीनकाल के समाजशास्त्र या नीतिशास्त्र में ६ कर्म बताए गए हैं-शिल्प, सेवा, असि, मसि, कृषि और वाणिज्य । इन ६ कर्मों के द्वारा गृहस्थ अपने परिवार का भी भरण-पोषण करता था, समाज और राष्ट्र की भी सेवा करता था। जिस देश में शिल्प, विद्याएँ और कलाकौशल चढ़े-बढ़े होते हैं, वह देश भौतिक दृष्टि से उन्नतिपथ पर अग्रसर होता है ; वहाँ की जनता सुखपूर्वक अपनी जिंदगी बिताती है ; दुष्काल के थपेड़ों और प्राकृतिक प्रकोपों का वह डट कर सामना कर सकती है। परन्तु जो लोग केवल धनोपार्जन को ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना कर इन षट्कर्मों को सीखते हैं, उनके सामने समाज या राष्ट्र की सेवा करने या अपने परिवार का ही पोषण करने का कोई लक्ष्य नहीं होता ; उनका लक्ष्य खूब पैसा कमा कर मौजशौक करना ही होता है ; दुनिया मरे चाहे जीए; समाज चाहे रसातल में जाय, राष्ट्र का नैतिक जीवन चाहे खतरे में पड़ जाय, उनकी बला से । उन्हें तो पैसा चाहिए, फैशन और भोगविलास के साधन चाहिए ! इसी दृष्टि को
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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