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________________ पंचम अध्ययन : परिग्रह-आश्रव ४८५ ग्रेवेयकों से ऊपर पाँच अनुत्तरदेवों के विमान हैं। इनमें से विजय, वैजयन्त,जयन्त और अपराजित ये चार चारों दिशाओं में से एक-एक दिशा में हैं और सवार्थसिद्ध नामक अनुत्तरविमान इन चारों के मध्य में है । सर्व अर्थों-प्रयोजनों की सिद्धि वाले जीव इसमें उत्पन्न होते हैं। यानी सर्वार्थसिद्ध विमान में जन्म लेने वाले देव भविष्य में सिर्फ एक ही भव-मनुष्यजन्म धारण करके सीधे मोक्ष में जाने वाले होते हैं। इसलिए इस विमान का ‘सर्वार्थसिद्ध' नाम सार्थक है। विमानवासी देव दूसरे निकायों के देवों से अधिक ऋद्धि-सम्पन्न होते हैं । और पूर्व-पूर्व वैमानिक देवों से आगे-आगे के वैमानिक देव स्थिति (आयु), प्रभाव (शाप या अनुग्रह की शक्ति), सुख, द्यु ति (शरीर और आभूषणों की कान्ति), लेश्या (आत्मा की परिणति-भावना) की निर्मलता, इन्द्रियों की शक्ति एवं अवधिज्ञान के के विषय में उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्रबल होते हैं। इसी बात को शास्त्रकार ध्वनित करते हैं—'विमाणवासी महिड्ढिया उत्तमा सुरवरा ।' • देवों के परिग्रह के रूप—देव किन-किन रूपों में परिग्रह स्वीकार करते हैं और उनका सेवन करते हैं ? इसके लिए शास्त्रकार ने बताया है—'भवण-वाहणजाण "भायणविहिं नाणाविहकामरूवे ... ... दीवसमुद्दे .. ... बहकाइं कित्तणाणि य परिगेण्हित्ता विपुलं दव्वसारं' । इन पंक्तियों का अर्थ पहले स्पष्ट किया जा चुका है। मतलब यह है कि देवों में वैक्रिय-शक्ति जन्म से ही होती है । वे चाहे जैसा रूप बना सकते हैं । मनचाहे भवन, वाहन, सवारी, यान, आभूषण, विमान, शय्या, आसन, वस्त्र, शस्त्र-अस्त्र, पचरंगे दिव्यभाजन, तथा वस्त्रालंकारों से विभूषित अप्सराएं आदि बना सकते हैं। इस कारण वे ममत्व से ग्रस्त हो कर विविध मनचाही सुखसामग्री बनाते हैं, अपनाते हैं और उन पर आसक्ति रखते हैं। ___ इन सब परिग्रहयोग्य सामग्री का उपभोग करने के लिए वे अनेक द्वीपों, समुद्रों, पर्वतों, वनों, ह्रदों, बावड़ियों आदि में अपनी अप्सराओं के साथ जाते हैं, वहां जलविहार, विविध प्रकार की क्रीड़ा और आमोद-प्रमोद करते हैं। अभीष्ट परिग्रहों से भी देवों को तृप्ति और संतोष कहां?-परिग्रह के रूप में नाना प्रकार की उत्तमोत्तम भोग्यसामग्री प्राप्त कर लेने के बाद क्या देवों को तृप्ति या संतुष्टि हो जाती है ? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं-~-'देवावि सईदगा न तित्ति न तुर्द्वि उवलभंति ।' अर्थात् इतनी सारी दौड़धूप करने और विक्रिया द्वारा विविध सुखसाधन जुटाने के बावजूद भी इन्द्रों सहित वे देव न तो तृप्ति का अनुभव करते हैं, और न संतोष की साँस लेते हैं । सचमुच परिग्रह में तृप्ति और संतोष नहीं है । जितना
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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