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________________ ४७६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र के स्वामी-इभ्य सेठ, सामान्य श्रेष्ठी, राष्ट्ररक्षक, राज्य - नियुक्त पुरोहित, राजकुमार, दण्डनायक,गणनायक,जिन गाँवों के चारों ओर निकट में बस्ती न हो, ऐसे गाँवों के स्वामी --माडंबिक, सार्थवाह कुटुम्बों अथवा ग्राम के मुखिया और अमात्य इत्यादि ये और अन्य जो भी मनुष्य हैं, वे परिग्रह का संचय करते हैं । ऐसे परिग्रह का, जिसका कोई अन्त नहीं है, जो शरणदायक नहीं है, जिसका परिणाम दुःखदायी है, जो स्थिर नहीं है, जो अनित्य है, अशाश्वत है, पापकर्म का मूल है, विवेकी जनों द्वारा हेय है,विनाश का मूल है, वध, बंध और क्लेश से परिपूर्ण है, और अत्यन्त संक्लिष्ट परिणाम---चित्तविकार का कारण है। लोभग्रस्त हुए वे देव, चक्रवर्ती आदि धन, सुवर्ण और रत्नों को राशि का संचय करके लोभी होकर चार गतियों वाले समस्त दुःखों के घर संसार में भ्रमण करते हैं। बहुत-से लोग परिग्रह के लिए सैकड़ों शिल्प-हुन्नर तथा गणितप्रधान कला से लेकर पक्षियों की बोली के ज्ञान तक की लेखन आदि सुनिपुण ७२ कलाएँ सीखते हैं । तथा रति उत्पन्न करने वाली महिलाओं की ६४ कलाओं (गुणों) को कई सीखते हैं । शिल्प और बड़े आदमियों की सेवा करना सीखते हैं,एवं असि-तलवार चलाने आदि की शस्त्र विद्या मसि-लेखनकार्य तथा खेती एवं वाणिज्य-व्यापार सीखते हैं। इसी प्रकार परस्पर विवाद-झगड़े को मिटाने के रूप में न्याय व्यवहार की शिक्षा प्राप्त करते हैं । धन-उपार्जन करने के उपायों को बताने वाले अर्थ शास्त्रों, राजनीति का ज्ञान कराने वाले नीतिशास्त्रों तथा धनुर्वेद आदि शास्त्रों को सीखते हैं और छुरी आदि शस्त्रों को पकड़ने और चलाने का अभ्यास करते हैं । तथा अनेक प्रकार के वशीकरण आदि तंत्रप्रयोगों को सीखते हैं । इनके अतिरिक्त और भी बहुत-से परिग्रहप्राप्ति के सैकड़ों कारणों-उपायों में प्रवृत्त होकर वे आजीवन विडम्बना पाते हैं, परिग्रह के गुलाम बन कर नाचते हैं । वे मंदबुद्धि अज्ञानी जीव परिग्रह के संचय करने में लगे रहते हैं । परिग्रह के लिए वे प्राणियों का वध करते हैं। झूठ बोलते हैं, ठगी करते हैं, घटिया चीज में थोड़ी-सी बढ़िया चीज मिला कर उसमें उत्तम व शुद्ध वस्तु का भ्रम पैदा करके धूर्तता का प्रयोग करते हैं । पराये द्रव्य को खींचने की उधेड़बुन में रहते हैं । अपनी स्त्री और परस्त्री दोनों का सेवन करने में धन खर्च हो जायगा, तथा स्वस्त्रीसेवन करने से संतान होने पर उनके पालनपोषण का भार वहन करना पड़ेगा, इस डर से स्वस्त्री और परस्त्री
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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