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________________ ४७७ पंचम अध्ययन : परिग्रह-आश्रव इस तरह अपनी-अपनी परिषद् के सहित ये चारों निकायों के देव भी आत्मा से अतिरिक्त सांसारिक पौदगलिक पदार्थों पर ममता रखते हैं- 'ये मेरे हैं, इस प्रकार की ममत्त्वबुद्धि रखते हैं। तथा ये भवन, हाथी आदि वाहन; रथ आदि सवारियाँ, विभान, शय्याएँ, आसन तथा अनेक प्रकार के वस्त्र एवं आभूषण, उत्तमोत्तम अस्त्र-शस्त्र और नाना प्रकार की मणियों से बने हए पचरंगे दिव्य बर्तन भाजन; एवं अपनी इच्छानुसार विक्रिया द्वारा नाना प्रकार के रूप बनाने वाली अनेक भूषणों से भूषित अप्सरागणों के समूह को और इसी प्रकार द्वीप, समुद्र, दिशाएँ, विदिशाएँ, चैत्य वृक्ष, वन समूह पर्वत, गाँव, नगर, वाटिकाएँ, बाग-बगोचे, घना जंगल, कुए सरोवर, तालाब, बावड़ी, देवालय, सभा, प्याऊ, आश्रम आदि स्थानों को स्वीकार करते हैं। तथा अत्यन्त अधिक सारभूत द्रव्य से विशिष्ट परिग्रह को स्वीकार करते हैं । इन्द्रों सहित इन देवों को संज्ञाएँ-इच्छाएँ अत्यन्त प्रचुर लोभ से अभिभूत होती हैं। वर्षधरपर्वतों, हिमवान् आदि कुलाचलपर्वतों, गोलाकार विजयाद्ध पर्वतों,कुण्डलद्वीप के अन्तर्गत कुण्डलाकारपर्वत, रुचकवर द्वीप के अन्तर्गत मण्डलाकारपर्वत,मानुषोत्तरपर्वत,कालोदधि और लवण समुद्र, गंगा आदि महानदियों,पद्म,महापद्म आदि बड़े-बड़े ह्रदों-झीलों, नन्दीश्वर नामक आठवें द्वीप में विदिशाओं में स्थित झालर के आकार के चार रतिकर पर्वतों, नन्दीश्वरद्वीप के अन्तर्गत अंजनपवतों ; जिन पर वैमानिक देव ठहर कर मनुष्यक्षेत्र में आते हैं, उन पर्वतों, उत्तरकुरु एवं देवकुरुक्षेत्र के कांचनमय पर्वतों,शीतोदा महानदी के तटवर्ती चित्र - विचित्र नाम के पर्वतों,शीता महानदी के तटवर्ती यमकवर नामक पर्वतों, समुद्र के मध्य में स्थित गोस्तपादि पर्वतशिखरों और नन्दनवन के कूटों आदि में निवास करने वाले देव न तो तृप्ति पाते हैं और न संतोष ही पाते हैं । जिनमें वक्षार नामक पर्वत विशेष हैं, जो विजयों को पृथक्-पृथक् विभक्त करने वाले हैं और जिनमें हैमवत आदि अकर्मभूमियाँ हैं। इसी प्रकार भली-भांति विभक्त प्रदेश वाली कृषि आदि कर्म की केन्द्र भरत क्षेत्र आदि १५ कर्मभूमियाँ हैं। इन समस्त क्षेत्रों पर चारों दिशाओं में दिग्विजय करने वाले चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, मांडलिक-मुकूटबद्ध राजा, युवराज आदि ईश्वर अथवा जागीरदार-उमराव आदि लोग, तथा राजा के द्वारा प्रसन्न हो कर प्रदत्त रत्नभूषित स्वर्णपदक को मस्तक पर बाँधने वाले शासनसंचालक, सेनापति, हस्तीप्रमाण स्वर्णराशि
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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