________________
श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
४३८
आनन्दित हो जाता है, वैसे ही निराश रोहिणी भी आशाधन पा कर आनन्दविभोर हो गई और शीघ्र ही वसुदेवजी के पास जा कर उनके गले में वरमाला डाल दी । एक साधारण मृदंग बजाने वाले के गले में वरमाला डालते देख कर सभी राजा, राजकुमार विक्षुब्ध हो उठे । सारे स्वयंवरमण्डप में शोर मच गया। सभी राजा चिल्लाने लगे - " बड़ा अनर्थ होगया ! इस कन्या ने कुल की नीति - रीति पर पानी फेर दिया । इसने इतने तेजस्वी, सुन्दर और पराक्रमी राजकुमारों को ठुकरा कर और न्यायमर्यादा को तोड़ कर एक नीच वादक के गले में वरमाला डाल दी ! यदि इसका इस वादक के साथ अनुचित सम्बन्ध या गुप्तप्रेम था तो राजा रुधिर ने स्वयंवर रचा कर क्षत्रियकुमारों को आमंत्रित करने का यह नाटक क्यों रचा ? यह तो हमारा सरासर अपमान है ?" इस प्रकार के अनेक आक्षेप - विक्षेपों से उन्होंने राजा को परेशान कर दिया । राजा रुधिर किंकर्त्तव्यविमूढ़ और आश्चर्यचकित हो कर सोचने लगा-' - " विचारशील, नीतिनिपुण और पवित्र विचार की होते हुए भी पता नहीं, रोहिणी ने इन सब राजाओं को छोड़ कर एक नीच व्यक्ति का वरण क्यों किया ? रोहिणी ऐसा अज्ञानपूर्ण कृत्य नहीं कर सकती; फिर रोहिणी ने यह अनर्थ क्यों किया ?” अपने पिता को इसी उधेड़दुन में पड़े देख कर रोहिणी ने सोचा कि 'मैं लज्जा छोड़ कर पिताजी को इनका ( अपने पति का ) परिचय कैसे दूं ?' वसुदेवजी ने अपनी प्रिया का मनोभाव जान लिया । इधर जब सारे राजा लोग कुपित होकर अपने दल-बलसहित वसुदेवजी से युद्ध करने को तैयार हो गए, तब वसुदेवजी ने भी सबको ललकारा - "क्षत्रियवीरो ! क्या आपकी वीरता इसी में है कि आप स्वयंवर मर्यादा का भंग कर अनीति - पथ का अनुसरण करें ! स्वयंवर के नियमानुसार जब कन्या ने अपने मनोनीत वर को स्वीकार कर लिया है, तब आप लोग क्यों अड़चन डाल रहे हैं ?" राजा लोग न्याय-नीति के रक्षक होते हैं, नाशक नहीं । आप स्वयं समझदार हैं, इतने में ही सब समझ जाइए ।" इस नीतिसंगत बात को सुन कर न्यायनीतिपरायण सज्जन राजा तो झटपट समझ गए और उन्होंने युद्ध से अपना हाथ खींच लिया । वे सोचने लगे कि इस बात में अवश्य कोई न कोई रहस्य है । इस प्रकार की निर्भीक और गंभीर वाणी किसी साधारण व्यक्ति की नहीं हो सकती। लेकिन कुछ दुर्जन और अड़ियल राजा अपने दुराग्रह पर अड़े रहे । जब वसुदेवजी ने देखा कि अब सामनीति से काम नहीं चलेगा ; ऐसे दुर्जन तो दण्डनीति-दमननीति से ही समझेंगे, तो उन्होंने कहा “तुम्हें वीरता का अभिमान है तो आ जाओ मैदान में ! अभी सब को मजा चखा दूंगा ।"
वसुदेवजी के इन वचनों ने जले पर नमक छिड़कने का काम किया। सभी दुर्जन राजा उत्तेजित हो कर एक साथ वसुदेवजी पर टूट पड़े और शस्त्र अस्त्रों से प्रहार करने लगे । अकेले रणशूर वसुदेवजी ने उनके समस्त शस्त्रास्त्रों को विफल कर सब राजाओं पर विजय प्राप्त की ।