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________________ चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य - आश्रव ४३३ कृष्ण बहुत-सा दहेज और अपनी पत्नियों को साथ लेकर द्वारिका नगरी में पहुंचे वहाँ पर अनेक प्रकार के आनन्दोत्सव मनाये गए । (५) तारा के लिए हुई लड़ाई - किष्किन्धानगरी में वानरवंशी विद्याधर आदित्य राज्य करता था । उसके दो पुत्र थे - बाली और सुग्रीव । एक दिन अवसर देख कर बाली ने अपने छोटे भाई सुग्रीव को अपना राज्य सौंप दिया और स्वयं मुनि - दीक्षा लेकर घोर तपस्या करने लगा । उसने चार घातीकर्मों का क्षय करके केवल ज्ञान प्राप्त किया और एक दिन सिद्ध, बुद्ध, मुक्त बन कर मोक्ष प्राप्त किया । सुग्रीव की पत्नी का नाम तारा था । वह अत्यन्त रूपवती और पतिव्रता थी । एक दिन खेचराधिपति साहसगति नाम का विद्याधर तारा का रूप – लावण्य देख कर उस पर • आसक्त हो गया । वह तारा को पाने के लिए विद्या के बल से सुग्रीव का रूप बनाकर तारा के महल में पहुंच गया । तारा ने कुछ चिह्नों से जान लिया कि मेरे पति का बनावटी रूप धारण करके यह कोई विद्याधर आया है । अतः उसने यह बात अपने पुत्रों से तथा जाम्बवान आदि मंत्रियों से कही। वे भी दोनों सुग्रीवों को देख कर विस्मय में पड़ गए, उन्हें भी असली और नकली सुग्रीव का कोई पता न चला । अतएव उन्होंने दोनों सुग्रीवों को नगरी से बाहर निकाल दिया। दोनों में घोर युद्ध हुआ, लेकिन हार-जीत किसी की भी न हुई । नकली सुग्रीव को किसी भी सूरत से हटते न देख कर असली सुग्रीव विद्याधरों के राजा महाबली हनुमानजी के पास आया और उन्हें सारा हाल कहा । हनुमानजी वहाँ आएं, किन्तु दोनों सुग्रीवों में कुछ भी अन्तर न जान सकने के कारण कुछ भी समाधान न कर सके और अपने नगर को वापिस लौट गए । असली सुग्रीव निराश होकर श्रीरामचन्द्रजी की शरण में पहुंचा। उस समय श्रीरामचन्द्रजी पाताललंका के खरदूषण से सम्बन्धित राज्य की सुव्यवस्था कर रहे थे । सुग्रीव उनके पास जब पहुँचा और उसने अपनी दुःखकथा उन्हें सुनाई तो श्रीराम ने उसे आश्वासन दिया कि 'मैं तुम्हारी विपत्ति दूर करूंगा । उसे अत्यन्त व्याकुल देख कर श्रीराम और लक्ष्मण ने उसके साथ प्रस्थान कर दिया । + वे दोनों किष्किन्धा के बाहर ठहर गये और असली सुग्रीव से पूछने लगे"वह नकली सुग्रीव कहाँ है ? तुम उसे ललकारो और भिड़ जाओ उसके साथ |" असली सुग्रीव द्वारा ललकारते ही युद्धरसिक नकली सुग्रीव भी रथ पर चढ़ कर लड़ाई के लिए युद्ध के मैदान में आ डटा । दोनों में बहुत देर तक जम कर युद्ध होता रहा, पर, हार या जीत दोनों में से किसी की भी न हुई । राम भी दोनों सुग्रीवों का अन्तर न जान सके । नकली सुग्रीव से असली सुग्रीव बुरी तरह परेशान होगया । अतः निराश होकर २८
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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