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________________ चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव रुक्मिणी अपनी सखियों के साथ महल से निकली । नगर के द्वार पर राजा शिशुपाल के पहरेदारों ने यह कह कर उन्हें रोक दिया कि--'ठहरो! राजा की आज्ञा किसी को बाहर जाने देने की नहीं हैं ।" रुक्मिणी की सखियों ने उनसे कहा--"हमारी सखी शिशुपाल की शुभकामना के लिए कामदेव की पूजा करने जा रही है । तुम इस मंगलकार्य में क्यों विघ्न डाल रहे हो ? खबरदार ! यदि तुम इस शुभकार्य में बाधा डालोगे तो इसका बुरा परिणाम तुम्हें भोगना पड़ेगा। तुम कैसे स्वामिभक्त हो कि अपने स्वामी के हित में बाधा डालते हो !' द्वाररक्षकों ने यह सुन कर खुशी से उन्हें बाहर जाने दिया । रुक्मिणी अपनी बुआ और सखियों सहित आनन्दोल्लास के साथ कामदेवमंदिर में पहुंची । परन्तु वहाँ किसी को न देख कर व्याकुल हो गई। उसने आर्त स्वर में प्रार्थना की। श्रीकृष्ण और बलदेव दोनों एक ओर छिपे रुक्मिणी की भक्ति और अनुराग देख रहे थे । यह सब देख-सुन कर वे सहसा रुक्मिणी के सामने आ उपस्थित हुए। लज्जा के मारे रुक्मिणी सिकुड़ गई और पीपल के पत्तों के समान थर-थर कांपने लगी। श्रीकृष्ण को चुपचाप खड़े देख बलदेवजी ने कहा"कृष्ण ! तुम बुत से खड़े क्या देख रहे हो ? क्या लज्जावती ललना प्रथम दर्शन में अपने मुह से कुछ बोल सकती हैं ?" इतना सुनते ही कृष्ण ने कहा-"आओ, प्रिये ! चिरकाल से तुम्हारे वियोग में दुखित कृष्ण यही है ।" यों कह कर रुक्मिणी का हाथ पकड़ कर उसे सुसज्जित रथ में बिठा लिया। कुडिनपुरी के बाहर रथ के पहुंचते ही उन्होंने पांचजन्य शंख का नाद किया, जिससे नागरिक एवं सैनिक कांप उठे ! इधर रुक्मिणी की सखियों ने शोर मचाया कि रुक्मिणी का हरण हो गया है। इसके बाद श्रीकृष्ण ने जोर से ललकारते हुए कहा-“ऐ शिशुपाल ! मैं द्वारिकापति कृष्ण तेरे आनन्द की केन्द्र रुक्मिणी को ले जा रहा हूं। अगर तुझ में कुछ भी सामर्थ्य हो तो छुड़ा ले ।" इस ललकार को सुन कर शिशुपाल और रुक्मी के कान खड़े हुए। वे दोनों क्रोधावेश में अपनी-अपनी सेना लेकर संग्राम करने के लिए रणांगण में उपस्थित हुए। मगर श्रीकृष्ण और बलदेव दोनों भाइयों ने सारी सेना को कुछ ही देर में परास्त कर दिया। शिशुपाल को उन्होंने जीवनदान दिया। शिशुपाल हार कर लज्जा से मुह नीचा किए वापिस लौट गया । रुक्मी की सेना तितर-बितर हो गई और उसकी दशा भी बड़ी दयनीय हो गई। अपने भाई को दयनीय दशा में देख कर रुक्मिणी ने प्रार्थना की कि मेरे भैया को प्राणदान दिया जाय । श्रीकृष्ण ने हंस कर कहा- “ऐसा ही होगा।' रुक्मी को उन्होंने पकड़ कर रथ के पीछे बांध रखा था, रुक्मिणी के कहने पर छोड़ दिया। दोनों वीर बलराम और श्रीकृष्ण विजयश्रीसहित रुक्मिणी को लेकर अपनी राजधानी द्वारिका में आए और वहीं श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी के साथ विधिवत् पाणिग्रहण किया।
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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