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________________ चतुर्थ अध्ययन : अब्रह्मचर्य-आश्रव ४१५ क्या अर्थ रह जाता है ? इसका उत्तर 'संज्ञा' शब्द का वास्तविक अर्थ ज्ञात होने से हो जायगा। संस्कृतभाषा में 'संज्ञा' शब्द के कई अर्थ हैं । इस सम्बन्ध में मेदिनीकोष का निम्नोक्त प्रमाण प्रस्तुत है - 'संज्ञा नामनि गायत्र्यां, चेतनारवियोषितोः । अर्थस्य सूचनायां च, हस्ताद्य रपि योषिति ॥' अर्थात्--'स्त्रीलिंगवाची संज्ञा शब्द का प्रयोग नाम, गायत्री, चेतना (होश में आना-बाहोशी), सूर्य की स्त्री, हाथ आदि से किसी बात के लिए संकेत करना, इत्यादि अर्थों में होता है । परन्तु यहाँ संज्ञा शब्द न तो किसी के नाम के अर्थ में है, न गायत्री अर्थ में, न सूर्यपत्नी के अर्थ में और न संकेत करने के अर्थ में है। यहाँ सीधेतौर पर संज्ञा शब्द चेतना-अर्थ में भी प्रतीत नहीं होता। वास्तव में जैनदर्शन में संज्ञा-शब्द पारिभाषिक है, और वह दो अर्थों में प्रयुक्त होता हैं। एक तो मन के व्यापार रूप अर्थ में संज्ञाशब्द का प्रयोग होता है । जैसे- संज्ञी और असंज्ञी जीव । यहाँ संज्ञी का मतलब है । मन के व्यापार-संज्ञा वाला जीव । दूसरा संज्ञा-शब्द वासना या अभिलाषा अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यहाँ मैथुनशब्द के साथ संज्ञाशब्द लगाने से प्रसंगवश कामसेवन की अभिलाषा या वासना अर्थ ही संगत लगता है। __केवल मैथुन-शब्द के रहने से तो पांचवें गुणस्थान तक रहने वाली मैथुनक्रिया का ही बोध होता। लेकिन मैथुन की वासना या अभिलाषा अव्यक्त रूप से तो नौवें गुणस्थान तक रहती है । इसलिए इस बात को द्योतित करने के लिए ही शास्त्रकार ने मैथुन-शब्द के साथ संज्ञाशब्द जोड़ा है। यही कारण है कि आगे चल कर शास्त्रकार ने स्पष्ट कर दिया है कि -- 'धम्मगुणरया य बंभयारी खणेण उल्लोट्ठए चरित्ताओ।' अर्थात्मैथुनसंज्ञा के बढ़ जाने पर अहिंसा-सत्यादि चारित्रधर्म और सद्गुणों में रत और ब्रह्मचर्यनिष्ठ मुनि, साधु, संन्यासी और योगी भी क्षणभर में चारित्र से भ्रष्ट हो जाते हैं । इसीलिए यहाँ मैथुनसंज्ञा को सर्वनाश का सर्वप्रथम कारण बताया है। इसके अतिरिक्त शास्त्रकार ने इसी सूत्रपाठ में आगे चल कर जिन भयंकर अनर्थों - परस्पर शस्त्राघात, मारपीट, जीवनाश, युद्ध और संघर्ष आदि का वर्णन किया हैं ; उन सब अनथों की खान मैथुनसंज्ञा ही है। इसलिए 'मेहुणसन्नासंपगिद्धा' शब्द से शास्त्रकार का एक तात्पर्य यह भी मालूम होता है कि मैथुनसंज्ञा में आसक्ति रखने वाले जीवों की दशा को जान कर मैथुनसंज्ञा के कारणों से संभ्रान्त व्यक्ति बचा रह सकता है। चूकि मैथुनसंज्ञा से इस जन्म और परजन्म में आत्मा का अहित होता है, अतः उससे बचना ही श्रेयस्कर है। मोहभरिया'-अब्रह्मचर्य में प्रवृत्त होने वाले जीवों के लिए दूसरा कारण बन जाता है—'मोह' । यह मोह ही है, जो मनुष्य को विवेकान्ध बना देता है, हिताहित का भान भुला देता है ; जो मनुष्य के ज्ञानचक्षुओं पर पर्दा डाल देता है। मोह से
SR No.002476
Book TitlePrashna Vyakaran Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages940
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size21 MB
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